भ्रष्ट आचरण और मंहगाई का चिरंतन शाश्वत साथ है,हर है और रहेगा भी.परिस्थितियाँ किसी भी व्यक्ति को अपराध करने की ओर प्रेरित करती है .इसी में भ्रष्टाचार भी सम्मिलित है.इसमें केवल न्यायपालिका को दोषी ठहराया जाय तो इसे किसी भी रूप में सही नहीं कहा जा सकता है. ये स्थितियाँ कहीं भी, किसी भी रूप में पैदा हो सकती हैं। इनके मूल में अपनी आजीविका अच्छी से अच चलाने का होता है.आइये जानें कि इनका स्वरूप किस तरह का होता है.
इसकी पहली शिक्षा हमें अपने धर्म से मिलती है चाहे वह कोई भी हो. अपनी किसी कामना के वशीभूत होकर उसके पूर्ण होने की आशा में इन धार्मिक स्थलों को कुछ न कुछ धन देते हैं जिसे दान का नाम दिया गया है. न देने पर दान-प्राप्तकर्ता का चेहरा देखने लायक होता है. ठीक इसी पद्धति का अनुसरण अपना काम कराने के लिये कार्यालयों में किया जाता है जो अधिकांशत: सरकारी होते है.यहाँ इसे भ्रष्टाचार कहा जाता है. दान में अनिश्चितता होती है परंतु भ्रष्टाचार में सुनिश्चितता समझना चाहिये.
ओलंपिक विजेता पान सिंह तोमर को पारिवारिक परिस्थितियों ने उसे ऐसा बना दिया कि वह अपनी आजीविका चलाने में असमर्थ सा हो गया. कहीं से कोई सहयोग न मिलने पर वह अंतत: एक डाकू बन गया. उसके इस वास्तविक जीवन पर फिल्म भी बनी है. इसी से मिलता जुलता स्वरूप, (लेकिन इतना भयानक नही), आजकल सरकारी कार्यालयों में देखने को मिलने लगे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये. कर्मचारियों को महंगाई से लडने के लिये वेतन के साथ-साथ मंहगाई भत्ता भी दिया जाता है. परिस्थितिवश सरकार को इस पर रोक लगानी पडी. कहने को तो यह रोक केवल एक वर्ष के लिये है, लेकिन हालातों को देखते हुए यह अवधि बढ भी सकती है. अधिसूचित आंकडों के अुसार 1 जनवरी 2021 से ये कर्मचारी 16% और अधिक धनराशि प्राप्त करने के लिये अधिकृत हो जाते है।आज भी महंगाई भाता की किस्त अविरल गंगा सदृश जारी है.डीजल-पेट्रोल के बढते दाम इस मंहगाई को किसी भी सूरत में कम होने वाली नहीं है। ऐसे में सरकारी कार्यालयों में क्या भ्रष्टाचार कम होने की आशा की जा सकती है?
अमेरिका में वरिष्ठ नागरिकों को पेंशन देने का दायित्व सरकार का है। चाहे वह नौकरी निजी क्षेत्र में करे अथवा सरकारी क्षेत्र में करे.इसके लिये हर माह उसके वेतन से कुछ धनराशि कटकर सरकारी खजाने में जमा हो जाती है. इसलिये अमेरिका के हर नागरिक का भविष्य सुरक्षित होता है। यही कारण है कि अपने देश से वहां गये हुए नागरिक की पहली प्राथमिकता वहां की नागरिकता प्राप्त करने की होती है. इसके विपरीत अपने देश में सरकारी कर्मचारी ही पेशन पाया करते थे। इसे भी अटल बिहारी बाजपेयी सरकार ने अपने समय में समाप्त कर दिया था. अब सेवा निवृत होने पर एक मुश्त मोटी रकम जरूर मिलेगी; लेकिन क्या इसधनराशि से वह अपना बचा हुआ जीवन आराम से गुजार पायेगा?
आय के कोई निश्चित साधन न होने से लोगों के पास या तो पलायन का मार्ग का बचता है या फिर वे अपराध की दुनिया में कदम रखते हैं. हमारे यहां लोग एक राज्य से दूसरे राज्य में आते जाते है. अन्य प्रदेशों में जाने पर कभी-कभी विचित्र स्थितियों का सामना करना पडता है। महाराष्ट्र से शिवसेना को अस्तित्व में लाने के लिये बाल ठाकरे ने दक्षिण भारतीय लोगों को भगाना शुरु कर दिया था और नारा लगाया था, उठाओ लुंगी, बजाओ पुंगी। बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग मुंबई में भय्या कहे जाते हैं.
दूसरे राज्यों से आये लोगों को भगाने की स्थिति गुजरात में भी देखने को मिली थी जो समय रहते नियंत्रण में कर ली गई थी. दूसरी जगह जाने की स्थिति केवल राज्यों तक ही सीमित नही है, अन्य देशों से भी है जैसे अमेरिका में मैक्सिको के लोग आ जाते है तो हमारे यहां बांग्लादेशी व म्यामांर की ओर से रोहिंग्या आ जाते है। बेरोजगारी के कारण अपराध की दुनिया में चोरी, डकैती, अपहरण आदि तो आजकल सामान्य सी बात है जिसे कहीं कहीं संगठित रूप भी मिला हुआ है.
इसलिये ये बाते समुचित आय व शानो-शौकत वाला जीवन बिताने की चाह में ही होती हैं।विश्वास कीजिए राजनीति का कल्पवृक्ष अक्षम और अयोग्य को पनपाने में सुयोग्य को अलग थलग कर देता है.
आलोक,प्रतिक्रिया आएगी तो अच्छा रहेगा.