विज्ञान कभी धर्म क्यों नहीं बनपाया?,आचार्य रजनीश .

 विज्ञान क्यों विकसित हुआ, धर्म क्यों नहीं हो सका?

मात्र विगत 350 सालों में विज्ञान कितनी तीव्रता से फैल गया, और धर्म पिछले 10 हजार सालों में भी न फैल पाया। इसके कारण चिंतन करने योग्य हैं।

ओशो कहते हैं कि विज्ञान अपनी निरंतर प्रगति और विकास में सफल रहा है, क्योंकि वैज्ञानिकों ने कभी गिरोहबंदी नहीं की। विज्ञान में किसी व्यक्ति या समूह का एकाधिकार नहीं होता; जो भी खोज या ज्ञान सामने आता है, वह संपूर्ण मानवता की सामूहिक संपत्ति बन जाता है। वैज्ञानिकों का प्रयास संकीर्ण दायरे में सीमित नहीं रहता, इसलिए विज्ञान लगातार विकसित होता गया। इसके विपरीत, धर्म अपने वास्तविक स्वरूप में संस्कृति नहीं बना सका, क्योंकि वह संप्रदायों में विभाजित होकर बंट गया। दुनिया में लगभग तीन सौ संप्रदाय हैं, लेकिन एक भी धर्म नहीं है। यदि ये संप्रदाय अपनी सीमाओं को तोड़कर विलीन हो जाएं, तो एक वास्तविक धर्म जन्म ले सकता है।

महावीर ने सत्य का एक कोना प्रकट किया, बुद्ध ने दूसरा, गुर्जिएफ ने तीसरा और ईसा मसीह ने चौथा। इन सबके पास सत्य का अंश है, लेकिन जब ये विभिन्न कोनों से प्राप्त ज्ञान संप्रदायों में बंट गया, तो उसकी समग्रता नष्ट हो गई। वास्तव में, ये सारी आध्यात्मिक संपत्तियां संपूर्ण मानवता की धरोहर हैं। यदि हम इन शिक्षाओं को किसी संप्रदाय की बपौती न मानकर समग्र रूप में अपनाएं, तो दुनिया में एक वास्तविक संस्कृति का जन्म होगा। वर्तमान में जो कुछ भी है, वह खंडित और विकृत रूप है, क्योंकि धर्म नहीं, बल्कि संप्रदाय फल-फूल रहे हैं।

विज्ञान और धर्म: संप्रदायों की दीवारें और समग्रता की आवश्यकता

ओशो कहते हैं कि यदि कभी-कभी कोई व्यक्ति धार्मिक चेतना में खिल उठता है, तो उसके आसपास तत्काल अनुयायियों का झुंड इकट्ठा हो जाता है। वे उसकी खोज को समझने के बजाय, उसे विकृत कर देते हैं। एक व्यक्ति के जीवन भर की साधना को उसके अनुयायी थोड़े ही समय में नष्ट कर देते हैं। महावीर, बुद्ध या ईसा मसीह किसी संप्रदाय के नहीं हैं; वे समस्त मानवता के हैं। या तो वे सबके हैं, या फिर किसी के भी नहीं।

यदि धर्म को विज्ञान की तरह अपनाया जाए, तो जीवन सुसंस्कृत हो सकता है। ओशो के अनुसार, धर्म परम विज्ञान है – जीवन का सर्वोच्च विज्ञान। लेकिन अब तक वह विज्ञान नहीं बन सका, क्योंकि अनुयायियों ने धर्म को संप्रदायों में बांटकर विकृत कर दिया। वे मौलिक सूत्र को भूल गए, इसीलिए वे कहीं भी नहीं पहुंच पाए। धर्म, जब तक संप्रदायों से मुक्त होकर समग्रता में नहीं उतरेगा, तब तक वह विज्ञान का रूप नहीं ले सकेगा और न ही सच्ची संस्कृति को जन्म दे पाएगा।

धर्म का दुर्भाग्य

दूसरा महत्वपूर्ण कारणः दुनिया के किसी भी कोने में कोई वैज्ञानिक जो भी खोजता है, वह शिक्षा का हिस्सा बनकर नई पीढ़ी के पास निरंतर पहुंचता रहता है। आगामी पीढ़ी के प्रतिभाशाली लोग उसके आगे कदम उठाते हैं, नए आविष्कार करते हैं। पुरानी खोजों में हुई भूलचूक में सुधार करते हैं। विज्ञान सदा नवीनीकृत होता रहता है, उन्नति करता जाता है।

धर्म कहता है हमारे संस्थापक गुरुदेव ने जो बताया, वह परम सत्य है, उसमें कोई सुधार संभव नहीं। हमारे पूज्य अवतार, तीर्थंकर, ईश्वर-पुत्र, मसीहा, पैगंबर आदि के वचन और जीवन के ढंग ‘अल्टीमेट’ हैं। प्राचीन ग्रंथों के सिद्धांत अपौरुषेय, सनातन, शाश्वत, अपरिवर्तनीय हैं। यदि किसी ने विरोध में कुछ कहा तो वह अधार्मिक है, नास्तिक है, पापी है।

इस जिद्द की वजह से बुद्धिमान प्रतिभाशाली लोग धर्म से दूर हट जाते हैं। आज आधी दुनिया नास्तिक हो गई, उसकी वजह आस्तिकों का अनावश्यक आग्रह है। ‘आउट ऑफ डेट’ तिथि-बाहय हो चुकी मान्यताओं को नासमझ ही ढो सकते हैं। उनके निरर्थक क्रिया कलाप देखकर ही चिंतन-मनन शील व्यक्ति वहां से मुंह मोड़ लेता है। सांप्रदायिक दंगा-फसाद करने वालों की हिंसक जमात से नाता तोड़ लेता है। जिन समझदार लोगों से विकास हो सकता था, उनमें अरुचि पैदा हो जाती है। आज तक धर्म का यही दुर्भाग्य रहा है।

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