अब कोई संगठन सरकार की प्रताड़ना का शिकार नहीं होगा

 

अब कोई संगठन सरकार की प्रताड़ना का शिकार नहीं होगा.इंदौर हाई कोर्ट ने भी अपना मंतव्य व्यक्त कर दिया.
पिछले दिनों 9 जुलाई को केंद्र सरकार ने सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों को राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ की गतिविधियों में शामिल होने से रोकने वाले 58 वर्ष पुराने प्रतिबंध को समाप्त कर किया। इसके बाद से देश में एक बहस प्रारंभ हो गई। कांग्रेस से लेकर कई विपक्षी दलों को यह बात चुभ रही है। इसी बीच, मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने इस मामले में महत्वपूर्ण टिप्पणियां की हैं, जिन्हें सबको जानना चाहिए।
 उच्च न्यायालय की यह टिप्पणियां इसलिए भी सबके ध्यान में आनी चाहिए ताकि भविष्य में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके जैसे किसी भी देशभक्त संगठन को सरकारें अपनी सनक और नापसंदगी का शिकार न बनाएं। न्यायालय ने इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया है कि सरकार को अपनी चूक का अहसास करने में पाँच दशक से अधिक का समय लग गया। यह गलती भी सरकार के ध्यान में तब आई, जब इस संबंध में एक याचिका न्यायालय में आई और न्यायालय ने सरकार से इस प्रतिबंध पर प्रश्न पूछे। चूँकि केंद्र में राष्ट्रीयता का पोषण करनेवाली विचारधारा की सरकार है, इसलिए जैसे ही उसके ध्यान में यह मामला आया तो उसने 9 जुलाई को तत्काल प्रभाव से कांग्रेस सरकार द्वारा लगाए गए इस प्रतिबंध को समाप्त कर दिया। 
इसका अर्थ यह हुआ कि न्यायालय के समक्ष लाई गई याचिका का निस्तारण औपचारिकता भर शेष रहा गया था। परंतु, न्यायालय को अनुभव हुआ कि राजनीतिक एवं वैचारिक द्वेष के साथ काम करनेवाली सरकारों को आईना दिखाना आवश्यक है। न्यायालय ने सोचा होगा कि संविधान और लोकतंत्र की मर्यादा क्या होती है, इसका पाठ पढ़ाया जाना आवश्यक है। अपनी टिप्पणियों के औचित्य को न्यायालय ने ही स्पष्ट करते हुए कहा है- “ये टिप्पणियां इसलिए भी आवश्यक हो जाती हैं कि जिससे आनेवाले समय में कोई सरकार अपनी सनक और मौज के चलते राष्ट्रीय हितों में कार्यकर किसी स्वयंसेवी संस्था को सूली पर न चढ़ा दे, जैसा कि विगत पाँच दशक से विश्व प्रसिद्ध संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ होता आया है”। 
न्यायालय की इस टिप्पणी की गंभीरता को समझना चाहिए और इस बारे में विचार करना चाहिए कि जिस पार्टी के नेता आज संविधान की पॉकेट साइज प्रति को लहराते घूम रहे हैं, उनकी सरकारों ने किस प्रकार संविधान की धज्जियां उड़ाई हैं। केवल अपनी नापसंदगी या वैचारिक असहमति के चलते कांग्रेस सरकार ने एक राष्ट्रीय विचार के संगठन को कमजोर करने के लिए इस प्रकार के कदम उठाए थे। उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सुश्रुत धर्माधिकारी एवं गजेन्द्र सिंह ने 18 पृष्ठ के अपने निर्णय कहा है कि आरएसएस की गतिविधियों में केंद्रीय कर्मचारियों के शामिल होने पर प्रतिबंध से सिर्फ केंद्रीय कर्मचारी ही नहीं, बल्कि आम नागरिकों के मौलिक अधिकार का भी हनन हो रहा था। नि:संदेह, कांग्रेस सरकार का यह निर्णय मौलिक अधिकारों का हनन करनेवाला था। यह संविधान एवं लोकतंत्र की मूल भावना के विरुद्ध भी था। न्यायालय ने रेखांकित किया कि प्रतिबंध लगाने से पहले न कोई सर्वे किया गया, न तथ्यों की जांच की गई। इस प्रतिबंध के कारण अनेक कर्मचारी संघ से जुड़कर देश सेवा नहीं कर पाए। याद रखें कि यह प्रतिबंध सेवानिवृत्त होने के बाद भी कर्मचारियों एवं अधिकारियों को संघ से जुड़ने से रोकता था। यदि कोई सेवानिवृत्ति के बाद संघ से जुड़ता तब उसकी पेंशन तक रोकने के प्रावधान किए गए थे। यह प्रावधान एक संस्था के प्रति घोर असहिष्णु आचरण का परिचय देते हैं। न्यायालय ने तीख स्वर में कहा है कि यह प्रतिबंध भारतीय संविधान के अनुच्छेद-14 एवं 19 का अपमान था। बिना किसी ठोस आधार के लगाए गए इस प्रकार के प्रतिबंध सदैव ही संवैधानिक चुनौती के लिए खुले रहते हैं। 
याद हो कि अलग-अलग राज्यों की सरकारों ने जब सरकारी कर्मचारियों को संघ की गतिविधि में शामिल होने या संघ से जुड़े होने के कारण प्रताड़ित किया, उन्हें सेवा से हटाने का प्रयास किया, तब अलग-अलग राज्यों के उच्च न्यायालयों ने भी अपने निर्णयों में इस प्रकार की कार्रवाई को असंवैधानिक और मौलिक अधिकारों के विरुद्ध बताया। मोदी सरकार ने अवश्य ही कांग्रेस के असंवैधानिक निर्णय को समाप्त कर दिया लेकिन संशोधित आदेश को कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग की आधिकारिक वेबसाइट पर अपलोड नहीं किया था। इसलिए यह भी भ्रम की स्थिति बन रही थी कि सोशल मीडिया में प्रसारित आदेश की प्रति सही है या कूटरचित है। न्यायालय ने इस भ्रम के निवारण और सभी विभागों के ध्यानार्थ सरकार को यह आदेश दिया है कि कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग और गृह मंत्रालय अपनी आधिकारिक वेबसाइट के ‘होम पेज’ (मुख पृष्ठ) पर 9 जुलाई के उस कार्यालय ज्ञापन को सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करें, जिसके माध्यम से सरकारी कर्मचारियों के आरएसएस की गतिविधियों में शामिल होने पर लगी रोक हटाई गई है। इसके साथ ही इस आदेश की सूचना सरकार के सभी विभागों को भेजी जाए। बहरहाल, मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय की इन टिप्पणियों पर कांग्रेस सहित उन नेताओं एवं उनके समर्थक बुद्धिजीवियों को अवश्य ही चिंतन-मंथन करना चाहिए जो लगातार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संबंध में निराधार टिप्पणियां करते रहते हैं।

Post a Comment

Previous Post Next Post

Contact Form