जल्दी कीजिए आपदाएं प्रतिक्षारत हैं.,पढ़ेंगे तब समझेंगे

मां के नाम पेड़ लगाना आसान है पर उसकी रक्षा कोन करेगा?

पोध को पानी कोन देगा?

बड़े होने तक उसका चिंतन कोन करेगा?

पेड़ो के साथ मानवता तो दूर,अमानवीयता  न  बरतने की गारंटी कोन देग  

पहले अपनी माओ को चिंता किए तब पेड़ लगाइए. रस्म अदायगी  से जो ऊपर उठेगा वही कुछ कर पाएगा.


एक तरफ तो देश भर में इस समय सामान्य जनों से लेकर विशिष्ट लोग अपनी माताओं के नाम पेड़ लगाने की होड़ में हैं। मुकाबला इस बात का भी है कि कैसे वे पेड़ लगाते हुए अपने फोटो एवं सेल्फियों को सोशल मीडिया पर वायरल करें. दिखावे के लिये ही सही पर इस तरह के अभियानों से किसी का विरोध नहीं है लेकिन दूसरी तरफ यह भी दिखता है कि 'भारत का मुकुट' कहा जाने वाला हिमालय लगातार उजड़ रहा है .इसका कारण है पेड़ों की अनवरत कटाई और वहां विकास का पर्याय बन चुका पर्यटन.पहाड़ों की प्राकृतिक सुषमा को निहारने के लिये आने वालों से लेकर इस पर्वत श्रृंखला में बने आस्था के केन्द्रों में माथा नवाने के लिये लाखों की संख्या में आने वाले श्रद्धालु पर्वतों को बर्बाद करने में एक सरीखा योगदान दे रहे हैं.

 पिछले कुछ समय से पूरी हिमालयन रेंज में आने वालों की तादाद में अप्रत्याशित रूप से बढ़ोतरी हुई है। खासकर, उत्तराखंड एवं हिमाचल प्रदेश में सबसे ज्यादा लोग जा रहे हैं। यहीं सबसे ज्यादा तबाही देखने को मिल रही है। बद्रीनाथ हाईवे पिछले तीन दिनों से भूस्खलन के कारण जाम हुआ पड़ा है और बड़ी संख्या में तीर्थयात्री यहां फंसे हुए हैं.


10 जून को जैसे ही बद्रीनाथ एवं केदारनाथ मंदिरों के कपाट खुले, लाखों की संख्या में श्रद्धालु उमड़ पड़े थे। चार धाम की यात्रा हर धर्मप्राण हिंदू की सबसे बड़ी इच्छा होती है। 16 जून, 2013 को हुई उत्तराखंड की भीषण त्रासदी में न जाने कितने लोगों की जान गई थी। उसे मानों भुलाकर लोग अगले साल से ही उसी प्रकार इन धार्मिक केन्द्रों में चले आये थे.

 11 वर्ष के बाद इस साल लगभग 60 प्रतिशत ज्यादा लोग जून के पहले हफ्ते में ही चार धाम के लिये पहुंचे थे। तब भी केदारनाथ एवं यमुनोत्री में मीलों लम्बा जाम लगा था। शुक्र तो यह था कि उस दौरान न कोई बारिश हुई और न ही भूस्खलन। यहां तक कि सरकार को रजिस्ट्रेशन रोक देना पड़ा था। इसका नतीजा यह हुआ कि वहां पहुंचे लोग राज्य भर में फैल गये थे। चूंकि इस पर्यटन से कथित रूप से सभी पहाड़ी राज्यों की इकानॉमी चलने की बात कही जाती है तो पर्वतों में बड़ी संख्या में होटल, रेस्टारेंट, होमस्टे, रोमांचक खेल आदि के नाम से लाखों की तादाद में पेड़ों को काटा गया.

 रास्ते चौड़े करने के लिये भी उनकी बलि ली गई। विशेषकर उत्तराखंड एवं हिप्र में यह सर्वाधिक हुआ है। पर्यटकों के जमावड़े ने जहां इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित करने के नाम से पेड़ों की कटाई कराई, वैसे ही बड़ी संख्या में आने वाले वाहनों के कारण पूरा इको सिस्टम ही गड़बड़ा गया है.

 ग्लेशियरों में जमी बर्फ तेजी से पिघल रही है, नदियों का जल स्तर बढ़ रहा है और त्रासदियों की पुनरावृत्ति हो रही है। इनमें सबसे ज्यादा हादसे भूस्खलन के होते हैं। भूगोल का अध्ययन बतलाता है कि हिमालय पर्वत श्रृंखला अपेक्षाकृत नयी है और वह अब भी निर्माणाधीन है इस कारण यह बेहद संवेदनशील है.इसकी स्वनिर्मित प्रणाली से छेड़छाड़ के नतीजे अच्छे नहीं निकलेंगे। वही देखने को मिल रहा है.

जो देखने को नहीं मिल रही है वह है लोगों की जागरूकता और हिमालय सहित देश भर के पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने की ललक- न सरकार की ओर से और न ही जनता की तरफ़ से। मैदानों में रहने वालों ने बड़े-बड़े उद्योग लगता हुआ देखने, कल-कारखाने खुलने, मॉल्स में शॉपिग करने, हाईराइज़ सोसायटियों में रहने और फोर लेन-सिक्स लेन सड़कों पर फर्राटे भरने के मोह में अनगिनत पेड़ों को कट जाने दिया और अमूमन दुपहरी में भी 38-40 से ऊपर न जाने वाला पारा जब 48 से 50 डिग्री को छूने लगा तो उन्हें पहाड़ों की हरियाली और ऊंचाइयों की याद आने लगी. हर वर्ष पर्यटकों के नाम से प्रकृति को तबाह करने वालों के झुंड आ रहे हैं और हर वर्ष उनकी संख्या में प्रति वर्ष इज़ाफ़ा हो रहा है.


हाल के इन वर्षों में धर्म और उसके नाम पर दिखावे का प्रचलन बढ़ा है, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेशों में स्थित धर्म स्थलों में आने वालों की तादाद भी बढ़ी है.

वैसे तो मैदानी इलाकों के ऐसे स्थलों में भी जाने वालों की संख्या में जबर्दस्त इज़ाफ़ा हुआ है परन्तु पहाड़ों की भौगोलिकी कहीं अधिक संवेदनशील होती है जो बड़ी जनसंख्या का भार वहन करने में असमर्थ होते हैं. इसे रोकने में सरकारें नाकाम हो ही हैं। हर वर्ष अलबत्ता बिला नागा 5 जून को पड़ने वाले अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण दिवस पर भी वैसे ही करोड़ों पौधे समारोहपूर्वक लगाये जाते हैं, जैसे इन दिनों चल रहे 'एक पेड़ मां के नाम पर लग रहे हैं.

 इसके अलावा किसी भी परिसर में अतिथियों के हाथों लगाये गये पौधों का जतन सही तरीके से हुआ होता तो अब तक भारत में एक इंच जगह भी न छूटी होती जहां पेड़ न लहलहा रहे होते.


मैदानों से लेकर पहाड़ों तक आज कहीं बाढ़ तो कहीं सूखे का जो आलम है वह इसी समझ का नतीजा है. देखा तो यह भी जा रहा है कि हर वर्ष सभी स्थानों पर गर्मी औसत से ज्यादा पड़ रही है और बरसात भी निर्धारित मात्रा से कहीं अधिक हो रही है। प्रकृति ने अपना चक्र करोड़ों वर्षों में बनाया है जिसे कुछ ही वर्षों में मनुष्य ने बिगाड़ कर रख दिया है. बदलाव की ज़रूरत मनुष्य के व्यवहार में होने की है वरना बड़ी प्राकृतिक आपदाएं प्रतीक्षारत तो हैं ही.

पर्यावरण की शुचिता इस बात की गारंटी है ,एक पेड़ दस पुत्र समान.

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