अहंकार और स्वाभिमान में अंतर


 अहंकार काम्य कर्म से उत्पन्न होता है जबकि गर्व निष्काम कर्म से ! काम्य कर्म में अर्थात अहं में मनुष्य अपनी व्यक्तिगत इच्छा और आकांक्षा की पूर्ति पर होने वाले सुख से संतुष्ट होता है जबकि जब यही इच्छा से प्राप्त संतुष्टि फलासक्ति रहित होकर सामाजिक हित और लोक-कल्याण , सर्व सुख से प्रेरित , निष्काम हो आत्मचित्त होता है तो मनुष्य गर्व की अनुभूति करता है इसी कारण गर्व चिरस्थायी और अहंकार छद्म ,क्षणिक हैं। साध्य और साधन के साथ स्वयं को ऊँचा रखना अहं औऱ साधन न रहने पर भी स्वयं को दृढ़ रखना कर्त्तव्य मार्ग पर चलते हुए गर्व है।

रावण की बात करें तो हम सभी जानते हैं कि रावण एक प्रकांड विद्वान, अनन्य शिवभक्त, वेदों का ज्ञाता, खगोलविद, आयुर्वेद विशारद, महापराक्रमी योद्धा, अस्त्र-शस्त्र विद्या का ज्ञाता तथा कई शास्त्रों का रचयिता था परन्तु सभी कुछ होते हुए भी उसने स्वयं के विनाश को ख़ुद ही अपने घमण्ड और अहंकार से रचा ,क्योकि अहंकार जब बुद्धि को घेरता है तो मनुष्य रजोगुणी अभिमानी बन व्यक्तिवादी और स्वार्थी बनकर स्व की संतुष्टि के लिए कर्म करने लगता है और यही अभिमान जब बुद्धि का अतिक्रमण करके मन को भी घेर लेता है तो यही घमण्ड बन जाता है और घमण्डी लोगों की बुद्धि मन के पीछे चलती है ।

 ऐसे लोग मन के गुलाम होते हैं औऱ रावण को लेकर जो भी किवदंतियां या कहानियां श्रव्य हैं वो कहीं न कही इन्हीं अवगुणों को चरितार्थ करती हैं जैसे उसने भगवान शिव के कैलाश को ही उठाना चाहा या बाली की शक्ति को खर-दूषण द्वारा पहले से जानते हुये भी युद्ध करना , मन की कामवासना से आसक्त होकर रूपवती नामक तप करने वाली कन्या से बलपूर्वक काम तृप्ति की चाहत या माँ सीता का हरण औऱ विवाह करने की चेष्टा , ये जानते हुए भी कि भगवान श्री राम कौन हैं ,इसके अलावा आत्म - अहंकार की संतुष्टि के लिए लोकहित और परिवारहित की चिंता न करते हुए लंका दहन को निमंत्रित करना, इस बात का पूर्व आभाष होते हुए भी कि स्वयं हनुमान ही रूद्रावतार हैं, ऐसे ही अन्य अहं ने उसके सारे ज्ञान चक्षु बंद कर दिए औऱ अभिमान तथा दंभ ने ही उस महाज्ञानी को अज्ञानी और पराक्रमी को निर्बल बना दिया , एक ही अवगुण उसके सारे सद्गुणों पर भारी पड़ गया और अंत में अहंकार ही उसके विनाश का कारण बना।

Post a Comment

Previous Post Next Post

Contact Form