हम सभी डाॅ. बी. आर. अम्बेडकर को सामाजिक न्याय के प्रबल
प्रवर्तक के रूप में जानते व मानते हैं, जो संविधान के निर्मिताओं में से एक होने के साथ एक महान राष्ट्रीय सोच के राष्ट्रीय नेता भी थे। लेकिन, भारतीय पत्रकारिता में उनके योगदान के बारे में बहुत कम चर्चा है। उन्होंने पत्रकारिता के पेशे को राय बनाने के एक सशक्त माध्यम के रूप में स्वीकार करते हुए इसमें प्रवेश किया था और इसे समाज के वंचित वर्गों के उत्थान के लिए अपनी अंतहीन लड़ाई का हिस्सा बनाया। वे 36 वर्षों तक इस बहुकंटक पथ के अनुगामी रहे। उनके लिए समाचार पत्र राष्ट्र और समाज की सेवा करने के पवित्र माध्यम थे। बाबा साहब की जीवनी लिखने वाले धनंजय कीर डाॅ0 अम्बेडकर द्वारा समाचार पत्र शुरू करने के उद्देश्यों को रेखांकित करते हुए लिखते हैं कि उन्होंने कानूनी पेशे का चुनाव इसलिए किया क्योंकि उन्हें अच्छी तरह से समझ आ चुका था कि अगर समाज की भलाई के लिए पत्रकारिता को जरिया बनाना है, तो उनके पास अपने जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने की एक अलग व्यवस्था होनी चाहिए। वह इस बात को लेकर पूरी तरह से जागरूक ही नहीं, बल्कि कटिबद्ध थे कि अखबार का प्रकाशन बड़े पैमाने पर समाज के कल्याण के लिए होना चाहिए, न कि कमाई के लिए। यह प्रतिबद्धता आज भी अनुकरणीय और अत्यधिक प्रासंगिक है।अपने इस मन्तव्य को उन्होंने जीवन पर्यन्त निभाया भी.
डाॅ. अम्बेडकर का राजनीतिक जीवन
अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद, भीमराव अम्बेडकर बैरिस्टर अम्बेडकर हो गए। उन्हें विज्ञान में डाॅक्टरेट की उपाधि मिली लंदन में अध्ययन के बाद, वह भारत लौट आए औरफिर से समाज के उपेक्षित और वंचित वर्गों के उत्थान के लिए खुद को समर्पित कर दिया. बाबा साहब का व्यवस्थित सार्वजनिक जीवन 1924 में बहिष्कृत हितकारिणी सभा के गठन के साथ शुरू हुआ। देश के राजनीतिक-संांस्कृतिक इतिहास में इस अवधि का विशेष महत्व है। उन दिनों गांधी जी कांग्रेस के निर्विवाद नेता बन चुके थे, वामपंथी आंदोलन शुरू हो चुका था और उसी दौरना 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भी गठन हुआ था। दो परस्पर विचार धस्तराओं में नागपुर में ही आकर लिया.
यह वह समय था, जब बाबा साहब ने सामाजिक जीवन में प्रवेश किया। उन्होंने बहिष्कृत हिककारिणी सभा के बैनर तले सामाजिक समरसता के निर्माण के लिए विभिन्न आंदोलन की शुरूआत की। उनकी सभी माँगों में एक मजबूत और सामंजस्यपूर्ण हिंदू समाज का सपना शामिल था। उन्होंने एक कुएं और एक मंदिर का मुद्दा उठाया, अर्थात् सभी के समान जलस्रोत हों और सभी वर्गों के लोगों का मंदिरों में प्रवेश हो। स्वाभाविक रूप से, कुछ रूढ़िवादी लोगों ने इस माँगों का विरोध भी किया। उनकी भारी आलोचना की गई। उन परिस्थितियों में लोगों को अपना संदेश देने के लिए, अम्बेडकर को एक अखबार शुरू करने की आवश्यकता महसूस हुई। उन दिनों किसी भी संगठन, जिसे समाज को अपना संदेश और सिद्धांत पहुँचनाना है, उनके लिए अखबार निकालना अपरिहार्य था। बिना अखबार का संगठन उसी तरह से लाचार था, जैसे बिना पंखों के पक्षी। इसीलिए, अम्बेडकर ने 3 अप्रैल, 1927 को मराठी पाक्षिक, बहिष्कृत भारत की शुरूआत की।
बेजुबानों की आवाज
समाज के वंचित तबकों की समस्याओं को उठाने के लिए एक समाचार पत्र की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए डाॅ. अम्बेडकर ने पत्रकारिता में मौलिकता और निष्पक्षता की आवश्यकता पर बल दिया। इसके पीछे उनका उनका एक व्यापक दृष्टिकोण था। वर्ष 1920 के बाद देश में कई सामाजिक-राजनीतिक सुधार आंदोलन शुरू हुए। अगर लोगों को उनमें से कई आंदोलनों के बारे में उचित परिप्रेक्ष्य में अध्ययन नहीं कराया जाता, या पढ़ाया जाता, तो वे स्वयं वंचित लोगों के लिए ही
अत्यधिक हानिकारक साबित हो सकते थे। उन्होंने उस दौर की घटनाओं के सकारात्मक और नकारात्मक परिणामों के बारे में लोगों को शिक्षित करना आवश्यक समझा। साथ ही, सरकार और जनता को वंचित लोगों की समस्याओं, पीड़ा, राय और प्रतिक्रियाओं से अवगत कराना भी जरूरी था। इस बातों को अपनी भाषा में जनता तक पहुँचाने की सख्त जरूरत थी।
डाॅ. अम्बेडकर ने इन सभी उद्देश्यों को पूरा करने के लिए अखबार को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया। पत्रकार के रूप में अम्बेडकर की यह यात्रा लगभग चार दशकों तक जारी रही। डाॅ. अम्बेडकर ने अपने समर्थकों की सहायता से भारत भूषण प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की। उन्होंने वर्ष 1930 में जनता नाम से एक और समाचार पत्र शुरू किया। इसका प्रकाशन 26 वर्षों तक चलता रहा। इसके बाद, उन्होंने इसका नाम बदलकर प्रबुद्ध भारत रखा। उनके सभी समाचार पत्रों के नामों ने मूल रूप से उनकी राष्ट्रीय भावनाओं की ओर इंगित किया और आंदोलन के विभिन्न चरणों का भी प्रतिनिधित्व किया।
इन समाचार पत्रों ने मीडिया में भी उनकी सक्रियता बनाए रखा और उनके जीवन के लक्ष्यों को स्पष्ट किया। मूकनायक उन लोगों का स्वर साबित हुआ, जिन्हें आमतौर पर कहीं भी नहीं सुना जाता था। बहिष्कृत भारत मजबूती से वंचित लोगों के साथ खड़ा था। यह एक सच्चाई है कि जब समाज के सभी वर्ग मुख्यधारा में शामिल न हो जाएं और शेष समाज के साथ आगे बढ़ना शुरू नहीं कर दें, तब तक सामंजस्यपूर्ण भारत का उद्दश्य पूरा नहीं किया जा सकता। इसीलिए, लोगों को इसके बार में शिक्षित करने के लिए उन्होंने जनता का प्रकाशन आरम्भ किया था। कुछ समय बाद, जब अम्बेडकर ने अपने अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण किया, तो उन्होंने इस अखबार का नाम बदलकर प्रबुद्ध भारत कर दिया था। इससे पता चलता है कि वे अपनी पूजा पद्धति को बदलने के बाद भी एक वैभवशाली भारत के सपने को साकर करना चाहते थे। मोटे तौर पर उनकी पत्रकारिता के समस्त प्रयासों के केन्द्र में मातृभूमि ही थी।
आज हम बेधड़क छत सकते हैं डा अंबेडकर के राष्ट्रवादी पक्ष को अन्यों ने नकार दिया, पर किसी की भी परवाह किए बिना उन्होंने बौद्ध धर्म को अपना कर देश और बहू संख्यक समाज पर एक प्रकार से ऋण का ही काम किया.अन्यथा राष्ट्रवादी डा अंबेडकर के पास असंख्य विकल्प थे.पर इनको तो ठीक से पता था आस्था बदले ही राष्ट्रीयता भी बदल जाती ही है.
स्वधर्मे निधन श्रेय:पर धर्मो भयाव:
आज डा अंबेडकर भारतीय समाज के सामाजिक संकेतक के रूप में अंतरिक्ष से हमारा और राष्ट्रवादियों का सामाजिक समता,सामाजिक न्याय,समाजोत्थान के ध्रुव बन मार्ग दर्शन कर असंख्यो के लिया परिवर्तन के विधाता वन मार्ग दर्शन कर रहे है.आज राष्ट्रवादी,प्रखर पत्रकार व वंचितो के प्रकाश स्तंभ डा अंबेडकर को कृतज्ञ राष्ट्र उनको नमन कर रहा है.
जिस विचार प्रवाह को उन्होंने अपनाया वह हमारे अवतारों की अब तक की अंतिम श्रीखला है.हमारा जीवन नित्य प्रति पूजा शीत अन्यान्य कार्यों में यही इंगित करता है, कलियुगे कलि प्रथम चरणे….. अस्तु सनातन और बौद्ध परस्पर स्मपूर्क हैं.दोनो ही ही शास्तिव व भाई चारे का ही संदेश देते हैं.
राजेंद्र नाथ तिवारी