वर्ष प्रतिपदा पर जिसे हम वासंतिक नवरात्रि भी कहते हे आज सेउसका श्री गणेश होरहा है.इसी दिन संघ के संस्थापक आद्य सर संघ चालक डा हेडगेवार का आविर्भाव दिवस भी है. जहां हम आज से नव संवत्सर का स्वागत करते हैं वही नारायण(श्रीराम) और नारायणी का भी स्मरण कर उनके श्री चरणों में
आत्म समर्पण भी करके अपने अभीष्ट की कामना भी है.आज समाज में दवासुर संग्राम छिड़ चुका है . तय भी है कोन कहा रहेगा
यह संग्राम जय विजय .पराजय का नहीं,यह संग्राम राष्ट्र कवि दिनकर के आह्वान को चरितार्थ करेगाजो तटस्थ है , सयय लिखेगा उनका भी अपराध!!
यह संग्राम भारत की अस्मिता को बचाने का है. निष्काम कर्म योगी प्रधान मंत्री के अगुवाई में विश्व महाशक्ति बनाने,विश्व की सबसे बड़ी अर्थ व्यवस्था बनाने,देश की सीमाओं को सुरक्षित रखने,सांस्कृतिक राष्ट्र वाद और देश के प्रतिमानों को जागृत करने,सामाजिक सद्भाव आत्म निभर भारत बनाने,एक सौ चालीस करोड़ परिवार जनों का परिवार बनाकर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद व भारतीय पुनर्जागरण की महनीय कामना का को स्थापित करने का देवासुर संग्राम हे.
वासंतिक नवरात्र में स्कारतमकता से परिपूर्ण जन सकल्प ले देश को मोदी के अगुवाई की सख्त आवश्यकता है परस्पर भेद भाव भूलकर एक ही लक्ष्य का संधान करे,भारत महान बनने और बनानाने का रास्ता परिवर्तन का विधाता मत दाता तो तय ही करेगा पर हमारा दायित्व है मन वचन और कर्म से सांस्कृतिक राष्ट्र की स्थामना मोदी हीकर व करवा सकता है,.
पूरा विश्व इस चुनाव की प्रतिक्षा में के वाम पंथी और कांग्रेस पंथी,परिवार,भ्रष्टाचार पंथी,आतंक पंथी, सबका उत्तर केवल एक है देश को मोदी की आवश्यकता है अगर चुके तो डाली के बन
हिन्दुत्व का विचार अखंड भारत की एक सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक आवाज है, जो देश की धार्मिक परंपराओं को दर्शाता है। वामपंथियों द्वारा इसे फासीवादी कहना, उनके द्वारा थोपा वाला एक सुविधाजनक आक्षेप है जो ऐतिहासिक एवं मूल्यपरक तथ्यों को नजरअंदाज करनेके उद्देश्य से लगाया जाता है। माक्र्सवाद का अत्याचार और नरसंहार का इतिहास रहा है, जिसमें इसे हर देश में संस्कृति और आध्ययात्मिकता को नष्ट करने के साथ शक्ति प्राप्त हुई है। माक्र्सवादी या कम्युनिस्टों के बारे में कुछ भी प्रगतिशील नहीं है, यह ऐतिहासिक रूप से फासीवाद के समान है।
हिन्दु धर्म ने हमेशा सामाजिक धर्म और शासन की भूमिका को प्रमुखता दी है। हम भारत के सबसे पुराने साहित्व में इसे स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। वेद न केवल महान ऋषियों, बल्कि महान राजाओं और सम्राटों का भी सम्मान करते है, विशेष रूप से सम्राट भरत जिससे भारत का पारंपरिक नाम भारत पड़ा है।
रामायण में श्रीराम के रूप में आदर्श धार्मिक शासक को दर्शाया गया है, जिन्हें एक दैवीय अवतार माना जाता है। महाभारत सुशासन की जरूरतों पर प्रकाश डालता है, और साथ ही देश में धर्म की रक्षा के लिए एक महान युद्ध का चित्रण करता है, योग के अवतार श्रीकृष्ण के साथ, धर्म बलों का मार्गदर्श करता है।
कई धर्म-सूत्र है, जिनमें समय के साथ परिष्कृत विभिन्न विचार और चर्चाएं शामिल हैं, जो समाज की प्रकृति और शासन के सिद्धांतों भूमिका सर्वविदित है। इस संबंध में छत्रपति शिवाजी महाराज उल्लेखनीय थे, जिन्होंने मुगल शासन को चुनौती दी, और अंततः इसे पराजित करने वाली ताकतों को मजबूती प्रदान की। महात्मा गाँधी का एक शक्तिशाली सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव था, क्योंकि उन्होंने अपने स्वरूप, मूल्यों और जीवन शैली में हिन्दू साधु का प्रतिनिधित्व किया था, जनता जिनके साथ चलती थी।
हिन्दुओं को राजनीतिक प्रभाव से वंचित करने का यह प्रयास सदियों से चले आ रहे हिन्दुओं के दमन के व्यापक एजेंडा का हिस्सा है, जो वर्तमान वामपंथी और मिशनरी एजेंडा के साथ फिट बैठता है। अब हमें बताया जाता है कि अच्छे हिन्दुओं का कोई राजनीतिक एजेंडा नहीं होता, और जिनके हिन्दू मूल्यों के सापेक्षा राजनीतिक सरोकार हैं, वे बुरे या झूठे हिन्दू हैं और यह उन लोगों द्वारा किया जाता है, जो शायद ही कभी हिन्दुओं के मूल्यों का पालन करते है। इसके बावजूद, वे हमें यह बताने से नहीं चूकते कि हिन्दुओं को भी हिन्दू धार्मिक मूल्यों या चिन्ताओं के आधार पर वोट नहीं देना चाहिए। हिन्दू परंपराओं और मूल्यों को कमतर करार देने वाले ऐसे लोग, हिन्दू मंदिरों का कैसे संचालन किया जाए, इस पर भी राय देने से नहीं कतराते। इस तरह, किसी भी हिन्दू राजनीतिक आवाज को दमनकारी हिन्दू तानाशाही के रूप में चित्रित करने में वे एक क्षण भी नहीं गवांते हैं।
एक तथ्य यह है कि वोटिंग पैटर्न, राजनीतिक सक्रियता या तर्क-वितर्क के मामले में हिन्दू सबसे कम राजनीतिक हैं। भारत के बाहर हिन्दुओं का सिर्फ एक राजनीतिक लाॅबिंग समूह (द हिन्दू अमेरिकन फाउंडेशन) है, जबकि ईसाइयों, यहूदियों और मुस्लिमों के ऐसे सैकड़ों समूह दुनियाभर में कार्य कर रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि सिक्खों के भी कई समूह हैं। भारत के बाहर के हिन्दु मतदाताओं की संख्या कम है। भारत के अंदर भी हिन्दुओं ने शायद ही कभी हिन्दू मुद्दों के अनुसार मतदान किया हो। इस बीच, भारत में मुस्लिम और ईसाई नियमित रूप से उन मुद्दों के पक्ष में मतदान करते हैं जो उनके समुदाय का समर्थन करते है, और वोटों के बदले राजनीतिक रूप से पुरस्कृत होते है।
सूचना प्रौद्योगिकी
इस सांस्कृतिक चुनौतियों के अलावा भारत में सूचना प्रौद्योगिकी के प्रसार ने नये राजनीतिक समीकरणों को जन्म दिया है। प्रौद्योगिक का यह स्वरूप भले ही राजनीतिक न रहा हो, पर इसका उपयोग राजनीतिक एजेंडा में किया जा सकता है।
सूचना प्रौद्योगिकी के इस वर्तमान वैश्विक विकास से पुरानी औद्योगिक क्रांति की तुलना में मानव समाज पर अधिक कट्टरपंथी और स्थायी प्रभाव पड़ने की संभावना है। इसके मीडिया प्रभावों में मानव को प्रभावित करने की अधिक शक्ति है। यह मानव के सोचने के तौर-तरीकों से लेकर भोजन, नींद,परिवार और समुदाय से जुड़ी आदतों में बदलाव कर सकती है। सूचना प्रौद्योगिकी किसी भी अन्य घटक की तुलना में हमारे मानस को अधिक प्रभावित कर सकती है।
स्पष्ट रूप से, नई सूचना प्रौद्योगिकी यात्रा, संचार, व्यवसाय या शिक्षा प्रदान करने समेत कई तरह से लाभकारी है। इस तकनीक पर कोई पीछे नहीं हट सकता। प्रश्न इसके उचित अनुकूलन का है। कुछ उल्लेखनीय दुष्प्रभाव है, जिन्हें इन मूर्त लाभों के कारण अनदेखा नहीं किया जा सकता।
भारत में वसुधैव कुटुम्बकम् का प्रसिद्ध सिद्धांत है, जिसका अर्थ है कि दुनिया एक परिवार है। फिर भी, कम से कम पारंपरिक रूप से तैयार की गई पारिवारिक प्रणाली को पश्चिम में हाशिए पर रखा गया है। एकल परिवार वाले घर और अकेले रहने वाले लोग तेजी से बढ़ रहे हैं। कई स्थितियों में अब एकल व्यक्ति, जिनमें युवा से लेकर वृद्ध शामिल हैं, सामुदायिक एवं पारिवारिक समर्थन के अभाव में सार्वजनिक प्रणाली पर आश्रित रहने को विवश हैं। राज्य की यह संभावित मदद ऐसे एकाकी जीवन की असुरक्षित परिस्थितियों में वांछनीय हो जाती है। यह आश्चर्य की बात नहीं हैं, जब हम कई युवा अमेरिकियों को किसी सामाजिक समर्थन के अभाव में समाजवाद का स्वागत करते हुए पाते हैं।
नई तकनीक हमारे सोचनते के तरीके को भी बदन रही है, जो इसे अधिक प्रतिक्रियाशाील, पक्षपातपूर्ण और कृत्रिम बना रही है। छात्र अब पाठ्यक्रम सामग्री को सीखने या अपने स्वयं के शब्दों में जवाब देने के बजाय परीक्षा के उत्तरों में भी कट-पेस्ट करते हैं। उन्हें लगता है कि कम्प्यूटर या सेलफोन पर जवाब देना पर्याप्त है, ज्ञान को अपनी स्मृति में रखने की आवश्यकता नहीं है, और व्यक्तिगत स्तर पर इसके बारे में बहुत कम सोचते हैं। सीखने का यह सतही तरीका दुनिया के एक सतही दृष्टिकोण को प्रोत्साहित करता है, जहाँ डेटा ज्ञान पर शासन करता है।
नई तकनीक के विद्युतीय आवेग तंत्रिका तंत्र को प्रभावित कर रहे हैं, विशेष रूप से युवाओं के लिए, जिनका सम्पर्क इस तकनीक से लगातार बढ़ रहा है। दोस्तों या परिवार के साथ किसी भी सीधे संचार की तुलना में युवा अपनी सेलफोन गतिविधि में शामिल होते हैं। एकाग्रता की समस्या बढ़ रही है, रचनात्मकता कम हो रही है, और अकेले में चुप रहने की आदत बढ़ रही है। अवसाद और चिड़चिड़ेपन भावनात्मक मुद्दों में एक महत्वपूर्ण वृद्धि के साथ नई मनोवैज्ञानिक समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। अधिकतर लोग दिनभर किसी न किसी मीडिया के सम्पर्क में रहते हैं। वे प्रकृति की सराहना करने या व्यक्गित स्तर पर एक-दूसरे के साथ बातचीत करने के लिए अपनी शक्ति खो रहे हैं। उनकी अपनी आभासी दुनिया उन्हें वास्तविक जीवन की गतिविधियों से दूर कर रही है।
इसके अलावा, हाइटेक समाज नशीली दवाओं की ओर बढ़ा रहा है और इन दवाओें तक आसान पहुँच की पेशकश कर रहा है, जो लोगों को जीवन के प्रत्यक्ष अनुभवों से दूर करती है।
भारत के शहरी क्षेत्रों में इन सामाजिक और मनोवैज्ञानिक समस्याओं की शुरूआत हो रही है जिसके लिए हमें तैयार रहना चाहिए। ऐसी समस्याएं भारतीय परिवार प्रणाली या पारंपरिक समुदायों को कमजोर कर सकती है। भारत की संस्कृति में बहुत कुछ है, जिसमें अनुष्ठान, त्योहार, तीर्थयात्रा और साधना शामिल हैं, जो इस प्रवृत्ति का मुकाबला करने में मदद कर सकती हैं, लेकिन बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। हमारी संस्कृति सिर्फ अलंकरण बनकर न रहे, बल्कि इसका लाभ सामाजिक एवं व्यक्तिगत स्वास्थ्य और मानव की भलाई के लिए आवश्यक है।
यहाँ हम देखते हैं कि हिन्दुओं द्वारा किए जाने वाला योग, मंत्रोच्चार, ध्यान और आयुर्वेद पूरे विश्व में नई उपजी गड़बडियों का मुकाबला करने में उल्लेखनीय भूमिका निभा रहे हैं। पद्धतियों की स्वीकार्यता न केवल दुनियाभर में बढ़ी है, बल्कि इन्हें व्यापक सम्मान मिल रहा है। भारत में भी इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। स्कूलों में योग, ध्यान और आयुर्वेद की शिक्षा न केवल भारत की संस्कृति को संरक्षित करने, बल्कि इसके सामाजिक और व्यक्गित भलाई के लिए भी महत्वपूर्ण हो सकती है।
गणेश हो रहा हे,
हिन्दुत्व, हिन्दु धर्म और हिन्दू विरोध एजेंसी
हिन्दुत्व का विचार अखंड भारत की एक सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक आवाज है, जो देश की धार्मिक परंपराओं को दर्शाता है। वामपंथियों द्वारा इसे फासीवादी कहना, उनके द्वारा थोपा वाला एक सुविधाजनक आक्षेप है जो ऐतिहासिक एवं मूल्यपरक तथ्यों को नजरअंदाज करनेके उद्देश्य से लगाया जाता है। माक्र्सवाद का अत्याचार और नरसंहार का इतिहास रहा है, जिसमें इसे हर देश में संस्कृति और आध्ययात्मिकता को नष्ट करने के साथ शक्ति प्राप्त हुई है। माक्र्सवादी या कम्युनिस्टों के बारे में कुछ भी प्रगतिशील नहीं है, यह ऐतिहासिक रूप से फासीवाद के समान है।
हिन्दु धर्म ने हमेशा सामाजिक धर्म और शासन की भूमिका को प्रमुखता दी है। हम भारत के सबसे पुराने साहित्व में इसे स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। वेद न केवल महान ऋषियों, बल्कि महान राजाओं और सम्राटों का भी सम्मान करते है, विशेष रूप से सम्राट भरत जिससे भारत का पारंपरिक नाम भारत पड़ा है
रामायण में श्रीराम के रूप में आदर्श धार्मिक शासक को दर्शाया गया है, जिन्हें एक दैवीय अवतार माना जाता है। महाभारत सुशासन की जरूरतों पर प्रकाश डालता है, और साथ ही देश में धर्म की रक्षा के लिए एक महान युद्ध का चित्रण करता है, योग के अवतार श्रीकृष्ण के साथ, धर्म बलों का मार्गदर्श करता है।
कई धर्म-सूत्र है, जिनमें समय के साथ परिष्कृत विभिन्न विचार और चर्चाएं शामिल हैं, जो समाज की प्रकृति और शासन के सिद्धांतों भूमिका सर्वविदित है। इस संबंध में छत्रपति शिवाजी महाराज उल्लेखनीय थे, जिन्होंने मुगल शासन को चुनौती दी, और अंततः इसे पराजित करने वाली ताकतों को मजबूती प्रदान की। महात्मा गाँधी का एक शक्तिशाली सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव था, क्योंकि उन्होंने अपने स्वरूप, मूल्यों और जीवन शैली में हिन्दू साधु का प्रतिनिधित्व किया था, जनता जिनके साथ चलती थी।
हिन्दुओं को राजनीतिक प्रभाव से वंचित करने का यह प्रयास सदियों से चले आ रहे हिन्दुओं के दमन के व्यापक एजेंडा का हिस्सा है, जो वर्तमान वामपंथी और मिशनरी एजेंडा के साथ फिट बैठता है। अब हमें बताया जाता है कि अच्छे हिन्दुओं का कोई राजनीतिक एजेंडा नहीं होता, और जिनके हिन्दू मूल्यों के सापेक्षा राजनीतिक सरोकार हैं, वे बुरे या झूठे हिन्दू हैं और यह उन लोगों द्वारा किया जाता है, जो शायद ही कभी हिन्दुओं के मूल्यों का पालन करते है। इसके बावजूद, वे हमें यह बताने से नहीं चूकते कि हिन्दुओं को भी हिन्दू धार्मिक मूल्यों या चिन्ताओं के आधार पर वोट नहीं देना चाहिए। हिन्दू परंपराओं और मूल्यों को कमतर करार देने वाले ऐसे लोग, हिन्दू मंदिरों का कैसे संचालन किया जाए, इस पर भी राय देने से नहीं कतराते। इस तरह, किसी भी हिन्दू राजनीतिक आवाज को दमनकारी हिन्दू तानाशाही के रूप में चित्रित करने में वे एक क्षण भी नहीं गवांते हैं।
एक तथ्य यह है कि वोटिंग पैटर्न, राजनीतिक सक्रियता या तर्क-वितर्क के मामले में हिन्दू सबसे कम राजनीतिक हैं। भारत के बाहर हिन्दुओं का सिर्फ एक राजनीतिक लाॅबिंग समूह (द हिन्दू अमेरिकन फाउंडेशन) है, जबकि ईसाइयों, यहूदियों और मुस्लिमों के ऐसे सैकड़ों समूह दुनियाभर में कार्य कर रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि सिक्खों के भी कई समूह हैं। भारत के बाहर के हिन्दु मतदाताओं की संख्या कम है। भारत के अंदर भी हिन्दुओं ने शायद ही कभी हिन्दू मुद्दों के अनुसार मतदान किया हो। इस बीच, भारत में मुस्लिम और ईसाई नियमित रूप से उन मुद्दों के पक्ष में मतदान करते हैं जो उनके समुदाय का समर्थन करते है, और वोटों के बदले राजनीतिक रूप से पुरस्कृत होते है।
सूचना प्रौद्योगिकी
इस सांस्कृतिक चुनौतियों के अलावा भारत में सूचना प्रौद्योगिकी के प्रसार ने नये राजनीतिक समीकरणों को जन्म दिया है। प्रौद्योगिक का यह स्वरूप भले ही राजनीतिक न रहा हो, पर इसका उपयोग राजनीतिक एजेंडा में किया जा सकता है।
सूचना प्रौद्योगिकी के इस वर्तमान वैश्विक विकास से पुरानी औद्योगिक क्रांति की तुलना में मानव समाज पर अधिक कट्टरपंथी और स्थायी प्रभाव पड़ने की संभावना है। इसके मीडिया प्रभावों में मानव को प्रभावित करने की अधिक शक्ति है। यह मानव के सोचने के तौर-तरीकों से लेकर भोजन, नींद,परिवार और समुदाय से जुड़ी आदतों में बदलाव कर सकती है। सूचना प्रौद्योगिकी किसी भी अन्य घटक की तुलना में हमारे मानस को अधिक प्रभावित कर सकती है।
स्पष्ट रूप से, नई सूचना प्रौद्योगिकी यात्रा, संचार, व्यवसाय या शिक्षा प्रदान करने समेत कई तरह से लाभकारी है। इस तकनीक पर कोई पीछे नहीं हट सकता। प्रश्न इसके उचित अनुकूलन का है। कुछ उल्लेखनीय दुष्प्रभाव है, जिन्हें इन मूर्त लाभों के कारण अनदेखा नहीं किया जा सकता।
भारत में वसुधैव कुटुम्बकम् का प्रसिद्ध सिद्धांत है, जिसका अर्थ है कि दुनिया एक परिवार है। फिर भी, कम से कम पारंपरिक रूप से तैयार की गई पारिवारिक प्रणाली को पश्चिम में हाशिए पर रखा गया है। एकल परिवार वाले घर और अकेले रहने वाले लोग तेजी से बढ़ रहे हैं। कई स्थितियों में अब एकल व्यक्ति, जिनमें युवा से लेकर वृद्ध शामिल हैं, सामुदायिक एवं पारिवारिक समर्थन के अभाव में सार्वजनिक प्रणाली पर आश्रित रहने को विवश हैं। राज्य की यह संभावित मदद ऐसे एकाकी जीवन की असुरक्षित परिस्थितियों में वांछनीय हो जाती है। यह आश्चर्य की बात नहीं हैं, जब हम कई युवा अमेरिकियों को किसी सामाजिक समर्थन के अभाव में समाजवाद का स्वागत करते हुए पाते हैं।
नई तकनीक हमारे सोचनते के तरीके को भी बदन रही है, जो इसे अधिक प्रतिक्रियाशाील, पक्षपातपूर्ण और कृत्रिम बना रही है। छात्र अब पाठ्यक्रम सामग्री को सीखने या अपने स्वयं के शब्दों में जवाब देने के बजाय परीक्षा के उत्तरों में भी कट-पेस्ट करते हैं। उन्हें लगता है कि कम्प्यूटर या सेलफोन पर जवाब देना पर्याप्त है, ज्ञान को अपनी स्मृति में रखने की आवश्यकता नहीं है, और व्यक्तिगत स्तर पर इसके बारे में बहुत कम सोचते हैं। सीखने का यह सतही तरीका दुनिया के एक सतही दृष्टिकोण को प्रोत्साहित करता है, जहाँ डेटा ज्ञान पर शासन करता है।
नई तकनीक के विद्युतीय आवेग तंत्रिका तंत्र को प्रभावित कर रहे हैं, विशेष रूप से युवाओं के लिए, जिनका सम्पर्क इस तकनीक से लगातार बढ़ रहा है। दोस्तों या परिवार के साथ किसी भी सीधे संचार की तुलना में युवा अपनी सेलफोन गतिविधि में शामिल होते हैं। एकाग्रता की समस्या बढ़ रही है, रचनात्मकता कम हो रही है, और अकेले में चुप रहने की आदत बढ़ रही है। अवसाद और चिड़चिड़ेपन भावनात्मक मुद्दों में एक महत्वपूर्ण वृद्धि के साथ नई मनोवैज्ञानिक समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। अधिकतर लोग दिनभर किसी न किसी मीडिया के सम्पर्क में रहते हैं। वे प्रकृति की सराहना करने या व्यक्गित स्तर पर एक-दूसरे के साथ बातचीत करने के लिए अपनी शक्ति खो रहे हैं। उनकी अपनी आभासी दुनिया उन्हें वास्तविक जीवन की गतिविधियों से दूर कर रही है।
इसके अलावा, हाइटेक समाज नशीली दवाओं की ओर बढ़ा रहा है और इन दवाओें तक आसान पहुँच की पेशकश कर रहा है, जो लोगों को जीवन के प्रत्यक्ष अनुभवों से दूर करती है।
भारत के शहरी क्षेत्रों में इन सामाजिक और मनोवैज्ञानिक समस्याओं की शुरूआत हो रही है जिसके लिए हमें तैयार रहना चाहिए। ऐसी समस्याएं भारतीय परिवार प्रणाली या पारंपरिक समुदायों को कमजोर कर सकती है। भारत की संस्कृति में बहुत कुछ है, जिसमें अनुष्ठान, त्योहार, तीर्थयात्रा और साधना शामिल हैं, जो इस प्रवृत्ति का मुकाबला करने में मदद कर सकती हैं, लेकिन बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। हमारी संस्कृति सिर्फ अलंकरण बनकर न रहे, बल्कि इसका लाभ सामाजिक एवं व्यक्तिगत स्वास्थ्य और मानव की भलाई के लिए आवश्यक है।
यहाँ हम देखते हैं कि हिन्दुओं द्वारा किए जाने वाला योग, मंत्रोच्चार, ध्यान और आयुर्वेद पूरे विश्व में नई उपजी गड़बडियों का मुकाबला करने में उल्लेखनीय भूमिका निभा रहे हैं। पद्धतियों की स्वीकार्यता न केवल दुनियाभर में बढ़ी है, बल्कि इन्हें व्यापक सम्मान मिल रहा है। भारत में भी इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। स्कूलों में योग, ध्यान और आयुर्वेद की शिक्षा न केवल भारत की संस्कृति को संरक्षित करने, बल्कि इसके सामाजिक और व्यक्गित भलाई के लिए भी महत्वपूर्ण हो सकती है।
हिन्दुत्व का विचार अखंड भारत की एक सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक आवाज है, जो देश की धार्मिक परंपराओं को दर्शाता है। वामपंथियों द्वारा इसे फासीवादी कहना, उनके द्वारा थोपा वाला एक सुविधाजनक आक्षेप है जो ऐतिहासिक एवं मूल्यपरक तथ्यों को नजरअंदाज करनेके उद्देश्य से लगाया जाता है। माक्र्सवाद का अत्याचार और नरसंहार का इतिहास रहा है, जिसमें इसे हर देश में संस्कृति और आध्ययात्मिकता को नष्ट करने के साथ शक्ति प्राप्त हुई है। माक्र्सवादी या कम्युनिस्टों के बारे में कुछ भी प्रगतिशील नहीं है, यह ऐतिहासिक रूप से फासीवाद के समान है।
हिन्दु धर्म ने हमेशा सामाजिक धर्म और शासन की भूमिका को प्रमुखता दी है। हम भारत के सबसे पुराने साहित्व में इसे स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। वेद न केवल महान ऋषियों, बल्कि महान राजाओं और सम्राटों का भी सम्मान करते है, विशेष रूप से सम्राट भरत जिससे भारत का पारंपरिक नाम भारत पड़ा है
रामायण में श्रीराम के रूप में आदर्श धार्मिक शासक को दर्शाया गया है, जिन्हें एक दैवीय अवतार माना जाता है। महाभारत सुशासन की जरूरतों पर प्रकाश डालता है, और साथ ही देश में धर्म की रक्षा के लिए एक महान युद्ध का चित्रण करता है, योग के अवतार श्रीकृष्ण के साथ, धर्म बलों का मार्गदर्श करता है।
कई धर्म-सूत्र है, जिनमें समय के साथ परिष्कृत विभिन्न विचार और चर्चाएं शामिल हैं, जो समाज की प्रकृति और शासन के सिद्धांतों भूमिका सर्वविदित है। इस संबंध में छत्रपति शिवाजी महाराज उल्लेखनीय थे, जिन्होंने मुगल शासन को चुनौती दी, और अंततः इसे पराजित करने वाली ताकतों को मजबूती प्रदान की। महात्मा गाँधी का एक शक्तिशाली सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव था, क्योंकि उन्होंने अपने स्वरूप, मूल्यों और जीवन शैली में हिन्दू साधु का प्रतिनिधित्व किया था, जनता जिनके साथ चलती थी।
हिन्दुओं को राजनीतिक प्रभाव से वंचित करने का यह प्रयास सदियों से चले आ रहे हिन्दुओं के दमन के व्यापक एजेंडा का हिस्सा है, जो वर्तमान वामपंथी और मिशनरी एजेंडा के साथ फिट बैठता है। अब हमें बताया जाता है कि अच्छे हिन्दुओं का कोई राजनीतिक एजेंडा नहीं होता, और जिनके हिन्दू मूल्यों के सापेक्षा राजनीतिक सरोकार हैं, वे बुरे या झूठे हिन्दू हैं और यह उन लोगों द्वारा किया जाता है, जो शायद ही कभी हिन्दुओं के मूल्यों का पालन करते है। इसके बावजूद, वे हमें यह बताने से नहीं चूकते कि हिन्दुओं को भी हिन्दू धार्मिक मूल्यों या चिन्ताओं के आधार पर वोट नहीं देना चाहिए। हिन्दू परंपराओं और मूल्यों को कमतर करार देने वाले ऐसे लोग, हिन्दू मंदिरों का कैसे संचालन किया जाए, इस पर भी राय देने से नहीं कतराते। इस तरह, किसी भी हिन्दू राजनीतिक आवाज को दमनकारी हिन्दू तानाशाही के रूप में चित्रित करने में वे एक क्षण भी नहीं गवांते हैं।
एक तथ्य यह है कि वोटिंग पैटर्न, राजनीतिक सक्रियता या तर्क-वितर्क के मामले में हिन्दू सबसे कम राजनीतिक हैं। भारत के बाहर हिन्दुओं का सिर्फ एक राजनीतिक लाॅबिंग समूह (द हिन्दू अमेरिकन फाउंडेशन) है, जबकि ईसाइयों, यहूदियों और मुस्लिमों के ऐसे सैकड़ों समूह दुनियाभर में कार्य कर रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि सिक्खों के भी कई समूह हैं। भारत के बाहर के हिन्दु मतदाताओं की संख्या कम है। भारत के अंदर भी हिन्दुओं ने शायद ही कभी हिन्दू मुद्दों के अनुसार मतदान किया हो। इस बीच, भारत में मुस्लिम और ईसाई नियमित रूप से उन मुद्दों के पक्ष में मतदान करते हैं जो उनके समुदाय का समर्थन करते है, और वोटों के बदले राजनीतिक रूप से पुरस्कृत होते है।
सूचना प्रौद्योगिकी
इस सांस्कृतिक चुनौतियों के अलावा भारत में सूचना प्रौद्योगिकी के प्रसार ने नये राजनीतिक समीकरणों को जन्म दिया है। प्रौद्योगिक का यह स्वरूप भले ही राजनीतिक न रहा हो, पर इसका उपयोग राजनीतिक एजेंडा में किया जा सकता है।
सूचना प्रौद्योगिकी के इस वर्तमान वैश्विक विकास से पुरानी औद्योगिक क्रांति की तुलना में मानव समाज पर अधिक कट्टरपंथी और स्थायी प्रभाव पड़ने की संभावना है। इसके मीडिया प्रभावों में मानव को प्रभावित करने की अधिक शक्ति है। यह मानव के सोचने के तौर-तरीकों से लेकर भोजन, नींद,परिवार और समुदाय से जुड़ी आदतों में बदलाव कर सकती है। सूचना प्रौद्योगिकी किसी भी अन्य घटक की तुलना में हमारे मानस को अधिक प्रभावित कर सकती है।
स्पष्ट रूप से, नई सूचना प्रौद्योगिकी यात्रा, संचार, व्यवसाय या शिक्षा प्रदान करने समेत कई तरह से लाभकारी है। इस तकनीक पर कोई पीछे नहीं हट सकता। प्रश्न इसके उचित अनुकूलन का है। कुछ उल्लेखनीय दुष्प्रभाव है, जिन्हें इन मूर्त लाभों के कारण अनदेखा नहीं किया जा सकता।
भारत में वसुधैव कुटुम्बकम् का प्रसिद्ध सिद्धांत है, जिसका अर्थ है कि दुनिया एक परिवार है। फिर भी, कम से कम पारंपरिक रूप से तैयार की गई पारिवारिक प्रणाली को पश्चिम में हाशिए पर रखा गया है। एकल परिवार वाले घर और अकेले रहने वाले लोग तेजी से बढ़ रहे हैं। कई स्थितियों में अब एकल व्यक्ति, जिनमें युवा से लेकर वृद्ध शामिल हैं, सामुदायिक एवं पारिवारिक समर्थन के अभाव में सार्वजनिक प्रणाली पर आश्रित रहने को विवश हैं। राज्य की यह संभावित मदद ऐसे एकाकी जीवन की असुरक्षित परिस्थितियों में वांछनीय हो जाती है। यह आश्चर्य की बात नहीं हैं, जब हम कई युवा अमेरिकियों को किसी सामाजिक समर्थन के अभाव में समाजवाद का स्वागत करते हुए पाते हैं।
नई तकनीक हमारे सोचनते के तरीके को भी बदन रही है, जो इसे अधिक प्रतिक्रियाशाील, पक्षपातपूर्ण और कृत्रिम बना रही है। छात्र अब पाठ्यक्रम सामग्री को सीखने या अपने स्वयं के शब्दों में जवाब देने के बजाय परीक्षा के उत्तरों में भी कट-पेस्ट करते हैं। उन्हें लगता है कि कम्प्यूटर या सेलफोन पर जवाब देना पर्याप्त है, ज्ञान को अपनी स्मृति में रखने की आवश्यकता नहीं है, और व्यक्तिगत स्तर पर इसके बारे में बहुत कम सोचते हैं। सीखने का यह सतही तरीका दुनिया के एक सतही दृष्टिकोण को प्रोत्साहित करता है, जहाँ डेटा ज्ञान पर शासन करता है।
नई तकनीक के विद्युतीय आवेग तंत्रिका तंत्र को प्रभावित कर रहे हैं, विशेष रूप से युवाओं के लिए, जिनका सम्पर्क इस तकनीक से लगातार बढ़ रहा है। दोस्तों या परिवार के साथ किसी भी सीधे संचार की तुलना में युवा अपनी सेलफोन गतिविधि में शामिल होते हैं। एकाग्रता की समस्या बढ़ रही है, रचनात्मकता कम हो रही है, और अकेले में चुप रहने की आदत बढ़ रही है। अवसाद और चिड़चिड़ेपन भावनात्मक मुद्दों में एक महत्वपूर्ण वृद्धि के साथ नई मनोवैज्ञानिक समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। अधिकतर लोग दिनभर किसी न किसी मीडिया के सम्पर्क में रहते हैं। वे प्रकृति की सराहना करने या व्यक्गित स्तर पर एक-दूसरे के साथ बातचीत करने के लिए अपनी शक्ति खो रहे हैं। उनकी अपनी आभासी दुनिया उन्हें वास्तविक जीवन की गतिविधियों से दूर कर रही है।
इसके अलावा, हाइटेक समाज नशीली दवाओं की ओर बढ़ा रहा है और इन दवाओें तक आसान पहुँच की पेशकश कर रहा है, जो लोगों को जीवन के प्रत्यक्ष अनुभवों से दूर करती है।
भारत के शहरी क्षेत्रों में इन सामाजिक और मनोवैज्ञानिक समस्याओं की शुरूआत हो रही है जिसके लिए हमें तैयार रहना चाहिए। ऐसी समस्याएं भारतीय परिवार प्रणाली या पारंपरिक समुदायों को कमजोर कर सकती है। भारत की संस्कृति में बहुत कुछ है, जिसमें अनुष्ठान, त्योहार, तीर्थयात्रा और साधना शामिल हैं, जो इस प्रवृत्ति का मुकाबला करने में मदद कर सकती हैं, लेकिन बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। हमारी संस्कृति सिर्फ अलंकरण बनकर न रहे, बल्कि इसका लाभ सामाजिक एवं व्यक्तिगत स्वास्थ्य और मानव की भलाई के लिए आवश्यक है।
यहाँ हम देखते हैं कि हिन्दुओं द्वारा किए जाने वाला योग, मंत्रोच्चार, ध्यान और आयुर्वेद पूरे विश्व में नई उपजी गड़बडियों का मुकाबला करने में उल्लेखनीय भूमिका निभा रहे हैं। पद्धतियों की स्वीकार्यता न केवल दुनियाभर में बढ़ी है, बल्कि इन्हें व्यापक सम्मान मिल रहा है। भारत में भी इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। स्कूलों में योग, ध्यान और आयुर्वेद की शिक्षा न केवल भारत की संस्कृति को संरक्षित करने, बल्कि इसके सामाजिक और व्यक्गित भलाई के लिए भी महत्वपूर्ण हो सकती है।
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संस्कृति