एक ही बाप की दो संताने एक ने वैचारिक भटकाव वश भारत में इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया और दूसरा आज भी सनातन बना हुआ है और दोनों एक दूसरे के जान के दुश्मन है परंतु यह बात अलग है की कोई सैद्धांतिक विरोध इस्लाम और सनातन में नहीं है ।सनातन में पूजा है और इस्लाम में प्रार्थना है जिसे सनातनी लोग मूर्ति पूजा करते हैं उसका स्थान इस्लाम में नहीं है।
"मूर्ति" पूजा के सवाल पे कई सारे विद्वान अटक जाते हैं और कई लोग तो शास्त्रों का ऐसा ज्ञान दे डालते है कि जैसे इन्होंने ही कोई शास्त्र लिख डाला हो, लेकिन फिर भी ये इतनी आसान सी चीज को नहीं समझ पाते है कि "पूजा" और " प्रार्थना" दोनों अलग चीज है।
सब कहते हैं की इस्लाम में मूर्ति पूजा मना हैैं लेकिन वास्तविकता यह है कि इस्लाम में "पूजा " का कॉन्सेप्ट ही नहीं है!
मुसलमान कभी भी अल्लाह की" पूजा" नहीं करते,वे केवल " प्रार्थना " करते हैं जिसे शायद "नमाज" कहते हैं।आज तक किसी मुसलमान ने अल्लाह कि पूजा नहीं की,ठीक इसी तरह ईसाई भी ईसा मसीह की पूजा नहीं करते ,वो भी" प प्रार्थना" जैसा ही कुछ करते हैं,लेकिन वो "पूजा" नहीं होती।खुद बड़े बड़े ज्ञानी हिन्दू इस साधारण सी बात को नहीं समझते तो औरों का तो कहना ही क्या।
मुस्लिम लोगों को लगता है कि वे अल्लाह कि पूजा करते हैं।सच्चाई यह है कि वे अल्लाह कि पूजा नहीं करते, वे प्रार्थना करते हैं लेकिन पूजा और प्रार्थना को एक जैसा मान लेते हैं,जबकि दोनों अलग चीजें हैं।
प्रार्थना में केवल निराकार को याद किया जाता है,इसके लिए किसी मूर्ति ,पेड़ या अन्य सहारे की आवश्यकता नहीं है।
पूजा में हम उस निराकार शक्ति को साकार रूप देकर उसका आदर सत्कार करते हैं,फूल ,पानी, मिष्ठान, दक्षिणा आदि चढ़ाना,यह पूजा कहलाती है।
अतीत में मूर्ति तोड़कों को यह सरल सी बात नहीं पता थी,क्यूंकि उन्हें बता दिया गया था कि जहां "बुत"(मूर्ति) दिखे उसे तोड़ डालो।
अल्लाह की पूजा नहीं की जा सकती,वास्तव में मुसलमान अल्लाह कि पूजा कर ही तब सकते हैं जब उसको कोई "आकार" दें जैसे कोई मूर्ति ,पेड़ आदि जैसा ही कुछ ।हम निराकार की पूजा कभी भी नहीं कर सकते।
अब यह फर्क खुद हिन्दुओं को तक पता नहीं होता तो दूसरों को क्या पता होगा?
यही कन्फ्यूजन "धर्म" और "मजहब" या"पंथ" आदि में भी है की इनको एक ही अर्थ से जोड़ लिया जाता है।धर्म और मजहब या पंथ आदि दोनों अलग चीजें हैं,लेकिन इन्हें एक ही मान लिया जाता है।वैसे इसमें अंग्रेजों का बहुत बड़ा हाथ है क्यूंकि अंग्रेज़ हर चीज को समझने के लिए अपना नजरिया लगा देते हैं और दुनिया उनको अंधे की तरह फॉलो करती है,"रिलिजन" शब्द इसका उदहारण है।
"धर्म" में यह जरूरी नहीं कि कोई किताब में क्या लिखा है,उसे पक्के तौर पर मान लिया जाए और यह तो बिल्कुल भी नहीं की दूसरों को भी अपने जैसा ही बना दिया जाए जो ना माने उसको मार दिया जाए।
मेरे लिए वैसे इस्लाम भी अरब कि रहन सहन कि पद्धति ही है,लेकिन मुसलमान अपनी किताबों को इतनी अहमियत दे देते हैं कि वे इस चीज को स्वीकार ही नहीं कर पाते कि इ*स्लाम वास्तव में अरबी रहन सहन का नाम ही है।सबसे पक्का और सच्चा मु*सलमान वो ही माना जाएगा जो सबसे ज्यादा खुद को"अरबी" दिखाएगा और अरबी रहन सहन को अपनाएगा।
मेरे लिए यह बात हास्यास्पद है कि किसी अफ्रीका के व्यक्ति को जबरदस्ती हिन्दू बना दिया जाए और अफ्रीका में इसका प्रचार किया जाए।अफ्रीका वाला करेगा क्या भारतीय तौर तरीके अपनाकर भी जब रहना उसे अफ्रीका में ही है?
यही कारण है कि हिन्दू संस्कृत नहीं सीखते लेकिन अरब से हजारों किलोमीटर दूर बैठा मुस्लिम भी चाहता है कि वो "अरबी" सीख ले।
मुस्लिम यदि पक्के तौर पर इस्लाम को फॉलो करें (जो कि वो करते भी है) तो वो दरगाह आदि को नहीं मानेंगे क्यूंकि यह पूजा का ही रूप है,कब्र पर चादर चढ़ाना और मूर्ति में फूल चढ़ाना दोनों एक ही चीजें है,चाहें कोई माने न माने एवम् दोनों को अलग दिखाने के विभिन्न कारण दे सकता है क्यूंकि इसमें कारण जैसी बात ही नहीं है!
जहां तक बात काबा कि है तो वह भी "पूजा" पद्धति का ही एक उदाहरण है।
काबा में पत्थर को चूमना, हर जगह काबा कि ओर मुंह करके नमाज़ पढ़ना यही बताता है कि मुसलमान" काबा" को "आदर" से देखते हैं और उसका सम्मान करते हैं,ठीक वैसे ही जैसे किसी मूर्ति का सम्मान किया जाता है।इसलिए इस्लाम के सबसे महत्वपूर्ण स्थल में खुद "पूजा" पद्धति का पालन किया जाता है।कारण यह है कि मक्का वासी पहले मूर्ति पूजक ही थे,इसलिए वहीं पैदा हुआ इस्लाम इससे अछूता नहीं है।अब चाहे कोई माने या ना माने,कोई भी स्वतंत्र चिंतक यही कहेगा।
जो धारण किया जाए वही धर्म है और धर्म ही राष्ट्र है और राष्ट्र ही भारत की स्थिति है ।भारत की आत्मा सनातन है। इस्लाम प्रवासी इस सत्य को स्वीकारना चाहिए सबको।