विकसित भारत संकल्प यात्रा का लक्ष्य ,2047 में 30 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था सहकारिताओं के बिना कल्पना करना किसी आर्थिक अज्ञानता से कम नहीं। वर्ष 2047 में सहकारिताओ की सशक्त उपस्थिति हमारे निजी और सरकारी क्षेत्रों से अधिक व्यापक और प्रभावी होगी। प्रधानमंत्री, गृहमंत्री के विजन 2047में सकारिता से ही समाज के अंतिम व्यक्ति को समर्थ व स्वावलंबी भारत का
निर्माण संभव है। सहकारिता की मजबूती ही आर्थिक महाशक्ति को मूर्त रूप देने में संभव है।इसके लिए प्रधानमन्त्री और गृह मंत्री के मार्ग दर्शन में मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ और प्रदेश में सहकारिता की कुंद धार को तेज कर प्रदेश में सहकारिता को आम जन तक पहुचाने का कार्य यशस्वी मंत्री जे पी एस राठौर के नेरेतृत्व से ही वाया उत्तरप्रदेश ही आर्थिक महाशक्ति का लक्ष्य साकार होगा।
आज सहकारिता की चर्चा करते समय हम केवल कृषि और ज्यादा से ज्यादा बैंकिंग तक सीमित रहते हैं; परंतु अगले 25 वर्षों में अमूल और इफको जैसी अनेक सहकारिताएं भारत के विकास की कहानियां लिख रही होंगी।
स्वास्थ्य, प्रौद्योगिकी, पर्यटन, पेट्रोलियम, ग्रीन एनर्जी या स्पेस जैसे क्षेत्र में कभी कोई सहकारी समिति झंडा गाड़ती दिखे तो हतप्रभ होने की जरूरत नहीं है। नए गठित सहकारिता मंत्रालय की अनेक पहलों का असर भारत पर दिखने में थोड़ा समय जरूर लगेगा लेकिन यह तो सत्य है कि चरैवेति चरैवेति को आत्मसात कर सहकारिताओं का उद्देश्य केवल सामाजिक उत्थान ही है।
वे न तो सरकारी संस्थानों की तरह शिथिलता की शिकार हैं और निजी क्षेत्र की तरह रक्त पिपासु होने के कोई लक्षण भीं उनमें नहीं दिखाई देते।
*सहकारिता लाचार सरकारी और स्वार्थपरायण निजी व्यवस्था के बीच की कड़ी है।*
यह समन्वयवादी स्वभाव को लेकर चलती है।
वर्ष 2047 तीस ट्रिलियन डॉलर अर्थव्यवस्था में सहकारिता का एक तिहाई योगदान का लक्ष्य हमें आज ही निर्धारित कर लेना चाहिए।
वर्तमान समय में देश के ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए सहकारी बैंक, भूमि विकास बैंक, औद्योगिक सहकारी संस्थाएँ, सहकारी कृषि समितियाँ, सहकारी विपणन समितियाँ, सहकारी उपभोक्ता समितियाँ, ग्रामीण विद्दुत सहकारिताएं आदि अनेकों संस्थाएँ कार्य कर रही हैं; परन्तु इनके बारे में अधिक जानकारी नहीं है या इन संस्थाओं से उसके द्वारा कार्य कराना उसके वश कि बात नहीं है। वास्तव में इन संस्थाओं का अधिकाधिक लाभ ग्रामीण क्षेत्र के कुछ सम्पन्न वर्ग से सम्बन्धित व्यक्तियों को मिला है। इस कारण सामान्य ग्रामीण व्यक्ति को इन संस्थाओं के कार्यों में कोई रूचि नहीं है। इसी तरह कि स्थिति शहरी क्षेत्रों के उपभोक्ता व् सहकारी समितियों आदि के सम्बन्ध में भी देखने को मिलती है। अत्: अब सहकारिता सप्ताह मनाकर ग्रामीण क्षेत्रों कि समस्याओं को हल कर सकते हैं? या इससे सामान्य ग्रामीण व्यक्ति के मन में इन संस्थाओं के प्रति विश्वास बढ़ेगा?
आज आवश्यकता इस बात कि है कि सच्चे दिल से जन-कल्याण एवं राष्ट्र-कल्याण कि भावना को ध्यान में रखकर इस बात पर विचार किया जाय कि देश में इतनी बढ़ी मशीनरी एवं करोड़ों रूपये के प्रावधान के बावजूद भी सहकारिता का कार्यक्रम सामान्य ग्रामीण व्यक्ति के लिए लाभप्रद क्यों नहीं हो सका? युवा पीढ़ी क्यों सहकारिता के नाम से आक्रोश में आ जाती है? इसका संक्षेप में यही उत्तर है कि सहकारिता विभाग ने अपनी मूल भावना को ध्यान में रखकर कार्य नहीं किया है और जो कार्य किया है वह इतना नगण्य है कि सामान्य ग्रामीण व्यक्ति का विश्वास अर्जित नहीं कर सकता।
इसलिए अब जरूरी है ग्रामीण विकास के लिए सहकारी संस्थाओं को निम्न प्रकार से प्रयोग लाने कि –
- सहकारी संस्था को ग्राम विकास योजना निर्माण एवं उसके कार्यन्वयन का एक अभिन्न अंग माना जाए। सहकारी संस्थाओं का ग्राम पंचायत तथा अन्य विकास अभिकरण से पूर्ण समन्वय स्थापित रहे।
- ग्राम कि सम्पूर्ण आवश्यकता में से अधिकाधिक आवश्यकताओं कि पूर्ति का उत्तरदायित्व सहकारी समितियों को दिया जाए।
- ग्राम विकास योजना के लिए भी आर्थिक स्रोत के रूप में ग्रामीण सहकारी संस्था को प्रमुख स्थान दिया जाय।
- सहकारी संस्था, ग्राम स्तिथ सभी प्रकार के अभिकरणों में समन्वय स्थापित करने का उत्तरदायित्व संभाले।
- “ग्राम अंगीकृत योजना” को समग्र ग्रामीण विकास योजना का आधार बिन्दु मानकर कार्यनिवत किया जाए। इस कार्यक्रम को आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संस्थाएँ भी अपना रही हैं।
ग्राम विकास रणनीति का एकमात्र साधन-सहकारिता
उद्देश्यों तथा विचारधारा कि दृष्टि से ग्रामीण विकास कार्यक्रम तथा सहकारी संगठन एक ही विषय के दो पहलू हैं। दोनों का मुख्य उद्देश्य समाज का आर्थिक उत्थान करना एवं शोषण रहित समाज कि स्थापना करना है। अन्तर केवल इतना है कि ग्रामीण विकास कार्यक्रम कि संज्ञा देकर सहकारिता के साधन का प्रयोग करना है।
सहकारिता की परिधि के अन्तर्गत सभी प्रकार के आर्थिक कार्यक्रम आते हैं, चाहे वे कृषि, विपणन,आपूर्ति, उद्योग, प्रक्रिया अथवा अन्य किसी भी सम्बन्धित क्रिया से जुड़े हों। कहने का तात्पर्य यह है कि सहकारिता के लिए “जहाँ न आये रवि वहां जाये कवि” वाली कल्पना साकार होती है। इतना ही नहीं ग्राम से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक, प्रत्येक स्तर पर सहकारी संगठन कार्यरत ही नहीं, निरंतर बढ़ते चले जा रहे हैं। अतएव ग्रामीण विकास कार्यक्रम, एक प्रकार से सहकारिता का ही एक अंग माना जा सकता है क्योंकि सहकारिता के क्षेत्र ग्राम से भी आगे हैं।
वास्तविक रूप से सहकारिता आन्दोलन का प्रादुर्भाव ग्रामवासियों की अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए ही हुआ। सहकारिता ने भारत में ९० प्रतिशत ग्रामों से अधिक की अपनी कार्य परिधि कार्यक्षेत्र में लिया है। औसतन प्रत्येक चार ग्रामों की बीच एक ग्रामीण सहकारी समिति कार्यरत है। सहकारी सिध्दान्तो के अनुसार कार्य करने से ग्राम जन-समुदाय अपने आप ही सहकारिता की प्रगति को ग्रामीण विकास मानने लगा है। सहकारिता की मुख्य रणनीति स्थानीय संसाधनों को विकसित कर उनका जनता के लिए उपभोग करना है जो ग्रामीण विकास कार्यक्रम के अनुरूप है। नियोजकों तथा विशेषज्ञों के साथ एक कमी रही है कि उन्होंने सहकारिता सहकारी इकायों जो मात्र “इनपुट” प्रदान करने वाली संस्था समझा, जबकि वास्तविक रूप से ये संस्थाएं सभी प्रकार का कार्य करने में न केवल सक्ष्म है वरन कर भी रही है और इस प्रकार ये ग्रामीण विकास के “मुख्य केन्द्र” के रूप में काम कर रही हैं। इनकी क्षमता का पूर्ण उपयोग करना वर्तमान स्तिथि में आवश्यक ही नहीं अनिवार्य हो गया है। सहकारिता का संगठनात्मक ढाँचा, कार्यप्रणाली, सिध्दान्त, जन-समुदाय कि साझेदारी, वित्तीय सुदृढता, विस्तार, आदि ऐसे आधार हैं जिनसे ग्रामीण विकास का मुख्य तथा एकमात्र साधन “सहकारिता” ही सिद्ध किया जा सकता है।