ज्ञान ध्यान भारत का प्रिय विषय पश्चिम का विषय भोग वादी।



“भारत को ज्ञान देना बंद करें गोरे देश”



डा समन्वय नंद

ज्ञान ध्यान भारत का विषय पश्चिम का प्रिय विषय भोगवादी।

गोरे देशों की एक अलग प्रकार की समस्या है । उनकी औपनिवेशिक मानसिकता आज भी गई नहीं है । उन्हें आज भी लगता है कि एशियाई व अफ्रीकी देशों पर शासन कर रहे हैं । इन देशों पर उनका उपनिवेश खत्म हुए दशकों बीत चुके हैं लेकिन उनकी मानसिकता जस की तस है । इसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं आया है । इन गोरे देशों को आज भी लगता है कि एशिया व अफ्रीका के लोग कुछ जानते नहीं है ।इसलिए वहां जो कुछ भी हो रहा है, जो कुछ भी नहीं हो रहा है उस बारे में वे इन देशों को ज्ञान देंगे। उन्हें क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए, यह बताने का अधिकार इन गोरे देशों को है । उन्हें लगता है कि इन देशों के अंदरुनी के ये गोरे देश एशिया व अफ्रीका के देशों पर लंबे समय तक शासन किया । इस औपनिवेशिक काल में इन युरोपीय गोरे देशों ने  यहां के लोगों का शोषण करने के साथ साथ यहां से भारी मात्रा में धनराशि व संपदा लूट कर आज बडे अर्थव्यवस्था बने हुए हैं । अब उनका उपनिवेश समाप्त हो चुका है । लेकिन उनकी औपनिवेशिक मानसकिता में किसी प्रकार का परिवर्तन आया हो,ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा है ।

विशेष रुप से अब जब एशिया व आफ्रीका के ये देश आर्थिक व अन्य क्षेत्रों में निरंतर प्रगति कर रहे हैं तो ये  गोरे देश  इसे सहन नही कर पा रहे हैं। उनकी छटपटाहट साफ दिख रही है । उनकी औपनिवेशिक मानसिकता का प्रतिफलन भी देखने को मिल रहा है ।

अब इसी तरह की एक घटना सामने आ रही है । मणिपुर में कुछ दिनों से चल रहे हिंसा को कर युरोपीय संघ द्वारा एक प्रस्ताव पारित किया गया है । इस प्रस्ताव में कहा गया है कि अल्पसंख्यकों के प्रति असहिष्णुता के कारण मणिपुर में इस तरह की स्थिति उत्पन्न हुई है । इस प्रस्ताव में आरोप लगाया गया है कि भारत राजनीति द्वारा प्रेरित नीति अपना रहा है । मणिपुर में इंटरनेट सेवा बंद करने को लेकर भी प्रस्ताव में चिंता व्यक्त की गई है ।

कुछ दिन पूर्व ही युक्रेन व रुस के बीच युद्ध प्रारंभ होते समय इन युरोपीय देश चाहते थे कि जैसे वे चाहते हैं, वैसा भारत करे । भारत खुले तौर पर रुस का विरोध करे। रुस पर इकनोमिक सैंक्शन लगाने के बाद युरोपीय देशों की इच्छा थी कि भारत भी उसका अनुपालन करे । कुछ देशों ने तो इसके लिए भारत पर दबाव बनाने का भी प्रयास किया था । लेकिन भारत ने तभी स्पष्ट कर दिया था कि वह अपने राष्ट्रीय हितों को वरियता देगा ।  किसी गोरे देश के दबाव में आने का सवाल ही नहीं उठता। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि युद्ध किसी भी समस्या का समाधान नहीं है । समस्याओं का समाधान बातचीत से ही निकलेगा ।

केवल इतना ही नहीं  अमरिका व युरोपीय युनियन द्वारा सैंक्शन लगाये जाने के बाद भी भारत ने रुस से कच्चा तेल खरीदना प्रारंभ किया। युरोपीय देशों को भारत का अपने राष्ट्रीय हितों के लिए लिया गया निर्णय खुब खटका । उन्होंने कभी सोचा ही नहीं होगा कि भारत उनकी बात को दरकिनार करे ।

वैश्विक राजनीति में भारत का दबदबा बढ रहा है। भारत की भूमिका बढ रही है। गोरे देशों के बातों को दरकिनार कर भारत अब अपने राष्ट्रीय हितों को केन्द्र में रख कर निर्णय ले रहा है। य़ुरोपीय युनियन को यह बात हजम नहीं हो रही है। यही कारण है कि युरोपीय युनियन भारत के संबंध में इस तरह की अबांछित प्रस्ताव को पारिच किया है । इसे युरोपीय युनियन के  फ्रस्ट्रेशन के रुप में भी देखा जा सकता है।

मणिपुर के संबंध में युरोपीय संघ की इस तरह की टिप्पणी किसी भी दृष्टि से ग्रहणीय नहीं है। यह सीधा सीधा किसी भी देश के अंदरुनी मामले में हस्तक्षेप का प्रयास है। कोई भी स्वाभिमानी देश उनके अंदरुनी मामलों में इस तरह के हस्तक्षेप के प्रयास को स्वीकार नहीं कर सकता ।

इस मामले में भारत सरकार ने भी काफी कडी प्रतिक्रिया दी है। भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि भारत के आंतरिक मामलों में इस तरह का हस्तक्षेप अस्वीकार्य है।

बागची ने कहा, ‘‘ हमने देखा है कि यूरोपीय संघ की संसद में मणिपुर की मौजूदा स्थिति को लेकर चर्चा की गयी और एक तथाकथित तात्कालिक प्रस्ताव पारित किया गया। भारत के आंतरिक मामलों में इस तरह का हस्तक्षेप अस्वीकार्य है और यह औपनिवेशिक मानसिकता को दर्शाता है। ’’

उन्होंने कहा कि न्यायपालिका सहित सभी स्तरों पर भारतीय अधिकारी मणिपुर की स्थिति से अवगत हैं और शांति, सद्भाव तथा कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए आवश्यक कदम उठा रहे हैं।

उन्होंने कहा, ‘‘ यूरोपीय संघ की संसद को सलाह दी जाएगी कि वह अपने समय का अपने आंतरिक मुद्दों पर अधिक उत्पादक ढंग से उपयोग करे।’’

भारत सरकार ने युरोपीय संघ को इस संबंध नें कूटनीतिक भाषा में कठोर उत्तर दिया है। इससे कडी भाषा का प्रयोग शायद ही हो सकता था । युरोपीय संघ ने भी ऐसी कठोर शब्दों की प्रतिक्रिया की अपेक्षा नहीं की होगी । इसलिए उन्हें झटका लगना स्वाभविक है । लेकिन एक बात स्पष्ट है कि इसके बावजूद वे औपनिवेशिक मानसिकता में परिवर्तन लायेंगे, यह सोचना गलत होगा।

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