अपराधी को दण्ड न्यायपालिका का काम,सरकार का काम समाज अभय हो! राजेन्द्र नाथ तिवारी

 जब न्याय व्यवस्था पर मुख्य न्यायाधीश तक अफसोस करने लगे तो समझ लीजिए न्याय आम आदमी से भाग रही है और लोगों का विश्वास, अविश्वास के घेरे में बढ़ रहा है ।कानून का हाथ अपराधियों के गले में हाथ डालने के तड़प रहा है ।न्याय व्यवस्था को सुदृढ़ करने की जिम्मेदारी सत्ता प्रतिष्ठानों की है , न्याय हमेशा से सत्ता प्रतिष्ठानों के लिए आंख की किरकिरी रहा है ।


25 जून 1975 आपातकाल और 12 जून 1975 इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश श्री जगमोहन लाल सिन्हा का निर्णय इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। परिस्थितियां चाहे जो भी हो पर पारिस्थितिकी बदलने का काम न्यायपालिका का है । न्याय मे विवेक,व्यवस्था और साहस का काम मणिकांचन सहयोग होना चाहिए।

असहमति न्याय की तरफ संगीता पर हो सकती है पर न्याय को नकारना किसी के भी बस की बात नहीं है। लोकतांत्रिक देशों में न्याय की कोई स्थाई लोकतांत्रिक परिभाषा नहीं है अपने देश में संविधान के तहत निर्वाचित सरकार और न्यायाधीश उसकी शपथ लेकर सत्ता में आई सरकारों को भी कानून अपने हाथ में लेकर आनन-फानन में न्याय कराने में मजा आने लगता है ।लंबी खर्चीली लड़ाई और अंततः निराश करने वाली अदालती प्रक्रिया से पीड़ित लोगों को इसमें मजा नहीं सजा और वह आत्महत्या की ओर चल देते हैं ।

इतने शक पैदा होता हैं कि न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी बढ़ने कारण हुई चर्चा का विषय बन जाता है। उत्तर प्रदेश में माफिया माफिया अतीक एन्ड कंपनी की पुलिस के हिरासत में हत्या अनेक अनुत्तरित प्रश्नों को जन्म दे रही हैं ।यह बात हो सकती है कि अपराधी था दुर्दांत ।विधायक को दौड़ाकर मारा था पर दण्ड न्यायिक प्रक्रिया के तहत दिया जाना था ।सरेआम फांसी देना भी न्यायिक प्रक्रिया है ,पर जिस तरह से कथित प्रेस की आईडी लेकर के और अतीक का हत्या की गयी, वह अपने आप में लोकतांत्रिक मूल्यों के हनन की बातों को स्वीकारने की बात है ।

अतीक एंड कंपनी को कभी न कभी दंड मिलना ही था पर इस तरह के दंड की घटना पाप और पुण्य को जन्म देती है जघन्य अपराधों में हंसी तो फंसी तो की बातें अच्छी लगती हैं जिससे न्यायिक प्रक्रिया में अपराधी और उसके न्याय सामंजस्य पर विरोधाभास खड़ा हो जाता है

जब अपराध अपराधी का सामंजस्य एक एक राजनीतिक गठजोड़ की तरह बन जाता हो ,तब नई प्रक्रिया बाधित होने की संभावना बढ़ जाती है। तारीख पर तारीख इस बात का प्रमाण है न्याय में विलंब हो रहा है और न्याय में विलंब न्याय को नकारने जैसा है ।

अगर अतीक अहमद एंड कंपनी के साथ तारीख पे तारीख न पड़ी होती तो राजनीतिक दबाव में न रहा होता तमाम राजनीतिक शक्तियों का इसमें हस्तक्षेप न रहा होता, इसमें निर्णय बहुत पहले हो गया होता

परंतु सरकारों को बचाने का काम भी अपराधी करते हैं, सरकारों को गिराने का भी काम अपराधी करते हैं और सरकारों के ऊपर अनैतिक टिप्पणियां करने का भी अपराधी करते हैं ।

भारतवर्ष में 1 वोट से अटल बिहारी वाजपेई की सरकार गिर गई पर उन्होंने कोई अनैतिक समझौता नहीं किया पर मनमोहन सिंह और मुलायम सिंह की सरकार बची रहे इसलिए उन्होंने अनैतिक व् अनीति से समझौता कर लिया।

आज शुचिता पूर्ण काम करने वाली मोदी और योगी की सरकार है आम आदमी को न्याय मिलने में कोई दिक्कत नहीं पर माफिया,गुंडा राज समाप्त करना सरकार की प्राथमिकता है।आज सरकार सभय को अभय देने का काम कर रही है।न्याय सरकारें नही न्याय पालिका करे।जिसको जो काम मिला वही करे तो ठीक।

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