जोगो ! प्रह्लाद फिर एक बार::होली महोत्सव

 


जहाँ पर्व हमारे आत्म चिंतन,विश्लेषण,परस्पर सौहाद्र के प्रतीक बन  आते थे ,अब वही हिंसा,असहिष्णुता व् कटुता का भाव हमारे जीवन में घोल रहेहै।हम

सकारात्मक और नकारात्मकता के संयोग को होली केरूप में मनाते है, पर नकारात्मकता की प्रतीक होलिका  को सकारात्मकता का प्रतीक भक्त प्रह्लाद भष्म व् पराजित कर सज्जनता,सौम्यता,सजगता,सहनशीलता व् सौहाद्रता का प्रतीक बन निष्कलुष बन बाहर आकर अधर्म पर धर्म का प्रतीक बन अधर्मी पिता से दो दो हाथ केवल इसलिए करता है की" ईश्वर सर्वत्र है, "हरिव्यापक सर्वत्र ना"
आज भक्त प्रह्लाद की जरूरत है क्योकि आजकी नकारात्मक होलिका को भष्म करने का साहस केवल प्रह्लाद में ही है।भक्तबके साथ प्रह्लाद महान वैज्ञानिक भी था,जिसे आग-,पानी से खेलने का महारत था।आज प्रह्लाद जी आइये और देश में व्याप्त अराजकता,असहिष्णुता ,साम्प्रदायिकता सहित नकारात्मक शक्तियो को होलिका जलाकर धर्माधिष्टित समाज की स्थापना में मोदी और योगी को अपने साहस,राष्ट्रभक्ति का सम्बल दें।
होली का महापर्व आज मनोरंजन, नशा और मजाक बनकर रह गया है। डीजे की कर्कश आवाज पर थिरकने वाले तथा कटे-फटे कपड़े पहनकर, बेढ़ंग फैशन पर गर्व करनेवाला युवा समाज रंग से रंग तो जाता है परंतु होली के पर्व के मर्म को समझने की इच्छा उसके मन में कभी नहीं जगती।



होली का पर्व है और बाल-गोपाल सहित युवा तथा बुजुर्गों में भी होली को लेकर बहुत उत्साह है। एक ऐसा समय था जब लोग इस पर्व को अधिक उत्साह व उमंग से किस प्रकार मनाया जा सकता है, इसका नियोजन होली के एक माह पूर्व ही कर लेते थे। इस अवसर पर गांव में खेल प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता था। इन प्रतियोगिताएं में लोग बड़े उत्साह से सहभागी होते थे। तरह-तरह के पकवान बनाये जाते थे, सारा गांव स्वादिष्ट व्यंजनों की खुशबू से भर जाता था। रंग-गुलाल के रंगीन दृश्य से वातावरण मनोहारी हो जाता था, किन्तु आज आधुनिकता और फूहड़ता के प्रवाह में ये सभी आनंद देनेवाले क्षण धीरे-धीरे समाप्त हो रहे हैं।

होली का महापर्व आज मनोरंजन, नशा और मजाक बनकर रह गया है। होली के अवसर पर फाग गानेवाले लोग प्रायः लुप्त होते जा रहे हैं। डीजे की कर्कश आवाज पर थिरकने वाले तथा कटे-फटे कपड़े पहनकर, बेढ़ंग फैशन पर गर्व करनेवाला युवा समाज रंग से रंग तो जाता है परंतु होली के पर्व के मर्म को समझने की इच्छा उसके मन में कभी नहीं जगती। इस आधुनिक पीढ़ी में त्योहारों को लेकर उत्साह तो है और उसको वे अभिव्यक्त भी करते हैं, परंतु अभिव्यक्ति का माध्यम क्या है, उसकी दिशा कौन-सी हो सकती है? होली क्यों मनाते हैं और इसे कैसे मनाना चाहिए? कौन बताए? मस्ती की पाठशाला कहकर होली के रंग-गुलाल में रंगे लोगों के फूहड़ नाच-गानों को मीडिया में प्रदर्शित किया जाता है और होलिका दहन की कहानी बता दी जाती है। इससे क्या होगा? होली में लोग शराब आदि का नशा करना क्या छोड़ देंगे? क्या लोग नशे में धूत होकर गाली-गलौच करना बंद कर देंगे? ऐसे अनेक प्रश्न हैं, जिसका समाधान खोजने की नितांत आवश्यक है।
होली का त्योहार तो हरिभक्त प्रह्लाद को स्मरण करने का पर्व है। हिरण्यकश्यपु के घर जन्म लेनेवाले बालक प्रल्हाद की भक्ति को आत्मीयता से हम कितने भारतीय स्मरण करते हैं? हिरण्यकश्यपु द्वारा दिए गए भयंकर यातनाओं से तनिक भी भयभीत न होनेवाले बालक प्रह्लाद क्या हमारे आदर्श नहीं हो सकते? याद कीजिए भक्त प्रल्हाद की वह हरिभक्ति, जिसके कारण भगवान विष्णु को अपने इस परम बालभक्त से मिलने बैकुंठ से भारतभूमि पर अवतरित होना पड़ा। प्रल्हाद ऐसा महान भक्त, जो न आग में जला, न पानी में डूबा, न तलवार की धार ने उसे कुछ नुकसान पहुंचाया। भगवान विष्णु ने नृसिंह रूप में प्रगट होकर प्रल्हाद हो नष्ट करने का प्रयत्न करनेवाले हिरण्यकश्यपु का संहार किया और अपने अनन्य भक्त प्रल्हाद को अपनी गोद में बिठाकर स्नेह की वर्षा की। परन्तु हमने तो प्रल्हाद को ही भूला दिया।

आज हमारे देश में एक तरफ ईश्वर के अस्तित्व को नकारनेवाले अनगिनत विधर्मी मिलते हैं और वहीं दूसरी ओर अपने धार्मिक होने का दावा ठोकने वालों की भी कोई कमी नहीं है। कथा, प्रवचन और सत्संग-भागवत के आयोजन के अवसर पर भारी संख्या में लोगों की भीड़ भी दिखने लगी है। फिर भी धर्माधारित जीवन जीनेवाले लोग कम ही दिखाई देते हैं। एक तरफ धार्मिक कार्यक्रमों में लोगों की भारी भीड़ तो दूसरी ओर धर्माधारित जीवन जीनेवालों की कमी! बहुत विरोधाभासी स्थिति है। यह इसलिए कि हम अपने धर्म, कर्तव्य और दायित्व को पहचान नहीं पाए। भक्त प्रह्लाद का जीवन धर्म, कर्तव्य और दायित्व बोध का आदर्श प्रस्तुत करता है। वह प्रल्हाद जिसके पिता स्वयं राजा थे और जो श्री हरि विष्णु के प्रबल विरोधी थे। विष्णु का नाम लेनेवालों की वह प्राण हर लेते थे। इस भयानक और त्रासदी युक्त वातावरण में प्रल्हाद ने बड़ी हिम्मत दिखाई। ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ का जाप करनेवाले भक्त प्रल्हाद ने पूरी निर्भयता के साथ भगवान विष्णु के नाम का प्रचार किया और अपनी भक्ति के प्रभाव से भयभीत समाज में भगवान के प्रति आस्था और विश्वास जगाया, इसी की परिणति है कि युगों से आज तक होली का पर्व मनाने की परम्परा अक्षुण्ण है।

परंतु मात्र पर्व मनाने से कार्य पूर्ण नहीं हो जाता, हमें तो ऐसे प्रल्हादों को खोज निकालना होगा जो ईश्वरीय कार्य को अपना ध्येय बना ले। आज जिस तरह भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण, शिवजी यहां तक की सनातन हिन्दू धर्म की देवियों को लेकर अनर्गल प्रचार करनेवालों की पूरी फ़ौज सक्रिय है, ऐसे में प्रल्हाद की भक्तिभाव का आदर्श समाज में ईश्वर के प्रति विश्वास को जगाता है। यदि हम प्रल्हाद के बीज बन पाएं तो निश्चय ही निर्भिक और आदर्श पीढ़ी का निर्माण कर सकेंगे। यह धर्म की पुन:स्थापना के लक्ष्य में यह सार्थक पहल होगा।
क सर्वत्र समाना" की युति को समाजिक व् धार्मिक मान्यता देता है, गजब तब होजाता  है ,जब भक्त के वशीभूत हो ईश्वर अपने वादे के अनुशार नृसिंह बन जाता है।यह है भक्त और भगवान का आंतरिक,मासिक लगाव।
होली का महापर्व आज मनोरंजन, नशा और मजाक बनकर रह गया है। डीजे की कर्कश आवाज पर थिरकने वाले तथा कटे-फटे कपड़े पहनकर, बेढ़ंग फैशन पर गर्व करनेवाला युवा समाज रंग से रंग तो जाता है परंतु होली के पर्व के मर्म को समझने की इच्छा उसके मन में कभी नहीं जगती।

जिसमे सभी नकारात्मक विचारों का हवन होजाय वही होली का पर्व है और बाल-गोपाल सहित युवा तथा बुजुर्गों में भी होली को लेकर बहुत उत्साह है। एक ऐसा समय था जब लोग इस पर्व को अधिक उत्साह व उमंग से किस प्रकार मनाया जा सकता है, इसका नियोजन होली के एक माह पूर्व ही कर लेते थे। इस अवसर पर गांव में खेल प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता था। इन प्रतियोगिताएं में लोग बड़े उत्साह से सहभागी होते थे। तरह-तरह के पकवान बनाये जाते थे, सारा गांव स्वादिष्ट व्यंजनों की खुशबू से भर जाता था। रंग-गुलाल के रंगीन दृश्य से वातावरण मनोहारी हो जाता था, किन्तु आज आधुनिकता और फूहड़ता के प्रवाह में ये सभी आनंद देनेवाले क्षण धीरे-धीरे समाप्त हो रहे हैं।

होली का महापर्व आज मनोरंजन, नशा और मजाक बनकर रह गया है। होली के अवसर पर फाग गानेवाले लोग प्रायः लुप्त होते जा रहे हैं। डीजे की कर्कश आवाज पर थिरकने वाले तथा कटे-फटे कपड़े पहनकर, बेढ़ंग फैशन पर गर्व करनेवाला युवा समाज रंग से रंग तो जाता है परंतु होली के पर्व के मर्म को समझने की इच्छा उसके मन में कभी नहीं जगती। इस आधुनिक पीढ़ी में त्योहारों को लेकर उत्साह तो है और उसको वे अभिव्यक्त भी करते हैं, परंतु अभिव्यक्ति का माध्यम क्या है, उसकी दिशा कौन-सी हो सकती है? होली क्यों मनाते हैं और इसे कैसे मनाना चाहिए? कौन बताए? मस्ती की पाठशाला कहकर होली के रंग-गुलाल में रंगे लोगों के फूहड़ नाच-गानों को मीडिया में प्रदर्शित किया जाता है और होलिका दहन की कहानी बता दी जाती है। इससे क्या होगा? होली में लोग शराब आदि का नशा करना क्या छोड़ देंगे? क्या लोग नशे में धूत होकर गाली-गलौच करना बंद कर देंगे? ऐसे अनेक प्रश्न हैं, जिसका समाधान खोजने की नितांत आवश्यक है।



होली का त्योहार तो हरिभक्त प्रह्लाद को स्मरण करने का पर्व है। हिरण्यकश्यपु के घर जन्म लेनेवाले बालक प्रल्हाद की भक्ति को आत्मीयता से हम कितने भारतीय स्मरण करते हैं? हिरण्यकश्यपु द्वारा दिए गए भयंकर यातनाओं से तनिक भी भयभीत न होनेवाले बालक प्रह्लाद क्या हमारे आदर्श नहीं हो सकते? याद कीजिए भक्त प्रल्हाद की वह हरिभक्ति, जिसके कारण भगवान विष्णु को अपने इस परम बालभक्त से मिलने बैकुंठ से भारतभूमि पर अवतरित होना पड़ा। प्रल्हाद ऐसा महान भक्त, जो न आग में जला, न पानी में डूबा, न तलवार की धार ने उसे कुछ नुकसान पहुंचाया। भगवान विष्णु ने नृसिंह रूप में प्रगट होकर प्रल्हाद हो नष्ट करने का प्रयत्न करनेवाले हिरण्यकश्यपु का संहार किया और अपने अनन्य भक्त प्रल्हाद को अपनी गोद में बिठाकर स्नेह की वर्षा की। परन्तु हमने तो प्रल्हाद को ही भूला दिया।

आज हमारे देश में एक तरफ ईश्वर के अस्तित्व को नकारनेवाले अनगिनत विधर्मी मिलते हैं और वहीं दूसरी ओर अपने धार्मिक होने का दावा ठोकने वालों की भी कोई कमी नहीं है। कथा, प्रवचन और सत्संग-भागवत के आयोजन के अवसर पर भारी संख्या में लोगों की भीड़ भी दिखने लगी है। फिर भी धर्माधारित जीवन जीनेवाले लोग कम ही दिखाई देते हैं। एक तरफ धार्मिक कार्यक्रमों में लोगों की भारी भीड़ तो दूसरी ओर धर्माधारित जीवन जीनेवालों की कमी! बहुत विरोधाभासी स्थिति है। यह इसलिए कि हम अपने धर्म, कर्तव्य और दायित्व को पहचान नहीं पाए। भक्त प्रह्लाद का जीवन धर्म, कर्तव्य और दायित्व बोध का आदर्श प्रस्तुत करता है। वह प्रल्हाद जिसके पिता स्वयं राजा थे और जो श्री हरि विष्णु के प्रबल विरोधी थे। विष्णु का नाम लेनेवालों की वह प्राण हर लेते थे। इस भयानक और त्रासदी युक्त वातावरण में प्रल्हाद ने बड़ी हिम्मत दिखाई। ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ का जाप करनेवाले भक्त प्रल्हाद ने पूरी निर्भयता के साथ भगवान विष्णु के नाम का प्रचार किया और अपनी भक्ति के प्रभाव से भयभीत समाज में भगवान के प्रति आस्था और विश्वास जगाया, इसी की परिणति है कि युगों से आज तक होली का पर्व मनाने की परम्परा अक्षुण्ण है।

परंतु मात्र पर्व मनाने से कार्य पूर्ण नहीं हो जाता, हमें तो ऐसे प्रल्हादों को खोज निकालना होगा जो ईश्वरीय कार्य को अपना ध्येय बना ले। आज जिस तरह भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण, शिवजी यहां तक की सनातन हिन्दू धर्म की देवियों को लेकर अनर्गल प्रचार करनेवालों की पूरी फ़ौज सक्रिय है, ऐसे में प्रल्हाद की भक्तिभाव का आदर्श समाज में ईश्वर के प्रति विश्वास को जगाता है। यदि हम प्रल्हाद के बीज बन पाएं तो निश्चय ही निर्भिक और आदर्श पीढ़ी का निर्माण कर सकेंगे। यह धर्म की पुन:स्थापना के लक्ष्य में यह सार्थक पहल होगा।

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