लखनऊ,संवाददाता
इसमें दो राय नहीं कि हमारे माननीयों की शब्दावली व बोल-वचन गरिमामय होने चाहिए। देश की नई पीढ़ी उनके व्यवहार से प्रभावित भी होती है क्योंकि वे भारतीय लोकतंत्र के नायक सरीखे होते हैं। अक्सर देखा जाता है कि संसद की कार्यवाही के दौरान होने वाली गरमा-गरम बहसों के दौरान ऐसे शब्दों का प्रयोग हो जाता है जो संसद की गरिमा के अनुकूल नहीं होते। संसद में सत्तारूढ़ दल अपने एजेंडे के साथ आता है और विपक्ष उसका विरोध करना अपना धर्म मानता है। लेकिन यह महज विरोध के लिये विरोध भी नहीं होना चाहिए। वहीं वे शब्द भी प्रतिबंधित नहीं होने चाहिए जो सही मायनों में लोकतंत्र को अभिव्यक्त करते हैं। लेकिन शब्दों की गरिमा तो हर हाल में बनी ही रहनी चाहिए। वैसे आज सदन में धीर-गंभीर प्रतिनिधि कम नजर आते हैं जो व्यापक ज्ञान व अध्ययन के अधिकारी हों और प्रतिरोध के लिये रचनात्मक भाषा का प्रयोग करते हों। निस्संदेह, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के मंदिर में भाषा भी लोकतंत्र की अर्चना जैसी ही होनी चाहिए। व्यक्तिगत आक्षेप के लिये गढ़ लिये गये तीखे-तल्ख शब्दों के प्रयोग से बचा जाना चाहिए। लेकिन यहां सवाल यह भी उठता है कि लोकसभा सचिवालय ने ‘असंसदीय शब्द 2021’ शीर्षक के तहत जिन शब्दों व वाक्यों को असंसदीय अभिव्यक्ति के दायरे में रखा है क्या वे वास्तव में असंसदीय हैं। कहा गया है कि सांसद इन शब्दों के प्रयोग से बचें और यदि इन शब्दों का प्रयोग होता है तो उसे सदन की दर्ज कार्यवाही से हटा दिया जायेगा। कहना कठिन है कि इसका व्यवहार में कितना पालन करेंगे। दरअसल, कुछ विपक्षी सांसदों ने खुलेआम कहा है कि वे इन शब्दों का प्रयोग करते रहेंगे। वे इस कदम को लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति पर अंकुश बता रहे हैं। साथ ही कह रहे हैं कि जब भाजपा विपक्ष में बैठती थी तो इन शब्दों का भरपूर उपयोग करती रही है।
बहरहाल, वक्त की दरकार है कि जिन शब्दों को असंसदीय बताकर रोक लगाई गई है, उनकी समीक्षा तो होनी चाहिए। यूं भी देश के राजनेता आम व्यवहार में गिने-चुने शब्दों का ही अपने संबोधन में प्रयोग करते हैं और शब्दों के चयन में रचनात्मकता कम ही नजर आती है। वैसे तो देश की कई विधानसभाओं में पहले से कई शब्द प्रतिबंधित हैं। वैसे इनमें से कई शब्द ऐसे भी हैं जो आम व्यवहार में खूब उपयोग किये जाते हैं। कई बार संसदीय बहस के दौरान आवेश में आकर विपक्षी सांसद लक्ष्मण रेखा लांघते नजर भी आते हैं। निस्संदेह, राजनीतिक विमर्श के मानकों की गरिमा बनाये रखने की जरूरत है। वहीं सरकार को भी अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान करना चाहिए। यदि कोई प्रतिनिधि सटीक स्थिति को दर्शाने वाले शब्दों का प्रयोग करता है तो सत्तापक्ष से सहिष्णुता की उम्मीद की जाती है। दुनियाभर के लोकतंत्रों में सत्ता की निरंकुशता पर नियंत्रण के लिये तीखे तेवर दिखाये जाते रहे हैं। इसे कुछ लोग लोकतंत्र की खूबसूरती बताते हैं। यह भी कि विपक्ष इसके जरिये सत्तापक्ष के मनमाने व्यवहार पर अंकुश लगाता है। वैसे भी सदन में वाद-विवाद संसदीय कार्यवाही की आत्मा कही जाती है। सत्तारूढ़ दल के मंत्री व सांसद सरकारी नीतियों व प्रस्तावित कानूनों को प्रस्तुत करते हैं, यदि विपक्षी सांसद उससे सहमत न हों तो उसके खिलाफ बहस करते हैं। निस्संदेह, ऐसे विमर्श से कई खामियों व विसंगतियों पर चर्चा हो सकती है। सत्ता पक्ष-विपक्ष अपनी बात को ठोस बिंदुओं और तर्कों से प्रमाणित करने का प्रयास कर सकते हैं। संभव है कि इस गर्मागर्मी में बात बढ़ सकती है लेकिन नेताओं को विनम्रता का परिचय देकर सदन में शिष्टाचार का पालन करना चाहिए। वैसे असंसदीय शब्दों को दर्ज कार्यवाही से निकाल दिया जाता है, लेकिन ये शब्द पूरी तरह प्रतिबंधित भी नहीं होते। मगर सरकार को रचनात्मक विमर्श के लिए गुंजाइश रखनी चाहिए। विपक्ष भी अपनी भाषा मर्यादित रखे। शब्दों की शुचिता का भी ध्यान रखा जाये। साथ ही हटाये गये शब्दों के विकल्प भी दिये जाएं। बेहतर होता कि ऐसे शब्दों को हटाने से पहले विपक्ष से भी विमर्श होता।