ऐसे समय में चीन के खिलाफ भारत की सेना बड़ी संख्या में सीमा पर तैनात है और गलवान की हिंसक घटना के बाद हालात तनावपूर्ण चल रहे हैं, भारत के वामपंथी दलों के नेता 1 जुलाई को चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) के 100वें स्थापना दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में शामिल हुए। नई दिल्ली में चीनी दूतावास की तरफ से आयोजित ऑनलाइन प्रोग्राम में सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी, सीपीआई महासचिव डी राजा और फॉरवर्ड ब्लॉक के जी देवराजन के अलावा डीएमके सांसद डीएनवी सेंथिलकुमार ने भी हिस्सा लिया। याद रखिए कि सीपीसी भारत की पार्टियों की तरह चीन की कोई सामान्य राजनीतिक पार्टी नहीं है, बल्कि वह इस देश की एकमात्र पार्टी है जिसका चीन पर एकछत्र राज है। आसान शब्दों में कहें तो हमारे यहां एक देश के पास कई राजनीतिक पार्टियां हैं, जबकि चीन के मामले में स्थिति यह है कि एक पार्टी के पास पूरा देश है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी अपने मनमाने अंदाज में इस देश को चलाती है।
सीपीसी के राज में चीन के लोगों को पता ही नहीं कि लोकतंत्र और मानवाधिकार किस चिड़िया का नाम है। लेकिन भारतीय वामपंथी, जो अपने यहां लोकतांत्रिक तरीके से चुनकर आए नेता को दिन-रात फासीवादी साबित करने के लिए गला फाड़ते रहते हैं, शी जिनपिंग के सामने केवल भीगी ही नहीं, उनकी पालतू बिल्ली भी बन जाते हैं। सीताराम येचुरी एण्ड कम्पनी का जब अपने चीनी आकाओं से सामना होता है तो वे गलती से भी उनसे तिब्बत और शिंजियांग ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की अगुवाई में किए जा रहे नरसंहारों और अत्याचारों पर सवाल नहीं करते। लेकिन भारत में यदि टेन के विवाद में भी गलती से कोई हत्या हो गई, तो उन्हें पूरा भारत अंधकारमय, असहिष्णु और अराजक लगने लगता है।
भारतीय कम्युनिस्टों की यह त्रासदी रही है कि उनका दृष्टिकोण कभी भारत केंद्रित नहीं रहा। वे पहले रूस और फिर चीन के पिछलग्गू बने रहे और उनके हितों को हमेशा भारत के हितों से उपर रखा। वे आंख बंद कर पहले दशकों तक रूसियों और फिर अब पिछले कई दशकों से चीनी कम्युनिस्टों की नकल करते रहे हैं। इसके कारण उन्होंने अनेक अवगुण और हिंसक तौरतरीके सीखे, जिन्हें बाद में भारत में आजमाया। लेकिन अच्छा होता कि उन्होंने चीनी और रूसी कम्युनिस्टों से यदि कुछ देशप्रेम भी सीख लिया होता। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में लाख बुराइयों हों, भले ही उसका शासन विस्तारवादी और लाखों चीनियों की मौतों का जिम्मेदार हो, लेकिन उसे इस बात का श्रेय तो दिया ही जाना चाहिए कि अपने शासनकाल में उसने चीन को एक आर्थिक महाशक्ति बना दिया है। आज चीन को दुनिया का कारखाना कहा जाता है, लेकिन भारतीय कम्युनिस्टों की स्थिति यह रही कि भारत के औद्योगिक रूप से अग्रणी राज्य पश्चिम बंगाल को अपने तीन दशकों के शासनकाल में उन्होंने उद्योगों की कब्रगाह बना दिया। इस पर अपना बचाव करने के लिए भारतीय वामपंथी तत्काल केरल का उदाहरण देने लगते हैं, लेकिन तथ्य यह है कि प्रकृति के वरदान के कारण पर्यटन और विदेशों में नौकरी करने वाले द्वारा भेजे पैसों के कारण केरल बेहतर स्थिति में है, न कि किसी पार्टी के बेहतर शासन के कारण। जब चीन के हित की बात आई, सीपीसी ने वामपंथ शासित सोवियत संघ को भी आंख दिखाने में हिचक नहीं दिखाई, लेकिन भारतीय वामपंथी यहां बैठकर भारत के हित को नजरंदाज कर हमेशा अपने मास्को या बीजिंग में बैठे वैचारिक बंधुओं का हुक्म बजाते रहे।
भारतीय के वामपंथियों ने कई निर्णायक मौकों पर देश को धोखा दिया है। 1962 में भारत-चीन युद्ध के समय भारतीय कम्युनिस्ट चीनी सेनाओं का स्वागत करने का आहवान कर रहे थे। देशहित और विचारधारा में टकराव की स्थिति आने पर भारत विरोधी रवैया अपनाने में उन्हें बिल्कुल देर नहीं लगती। 1962 में भारत-चीन युद्ध के समय कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया में इस बात पर अंदरूनी कलह हो गई थी कि पार्टी को भारत की जवाहरलाल नेहरू सरकार का साथ देना चाहिए या फिर चीन की साम्यवादी सरकार का जिसके विचारों को वह अपना आदर्श मानता है। इसी मतभेद ने पार्टी को दो टुकड़ों में बांट दिया और 1964 में चीनी समर्थक गुट ने सीपीआई से अलग होकर कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माक्र्सवादी) यानी सीपीआई (एम) बना लिया था।
वैसे वाम दलों द्वारा देश और विचारधारा के बीच टकराव की स्थिति में देशहित को ठुकराने की यह पहली घटना नहीं थी। महात्मा गांधी ने द्वितीय विश्वयुद्ध में फंसी ब्रिटिश सरकार से भारत की आजादी की मांग मनवाने के लिए सन 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन‘ का आह्वान किया था। लेकिन उस समय भी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने ब्रिटेन का साथ दिया।
भारत के कम्युनिस्टों पर माओवादी चीन का इतना असर हुआ कि पार्टी नेता यहां तक कहने लगे थे कि ‘चीन में पार्टी का चेयरमैन ही भारत में भी पार्टी का चेयरमैन‘ है। 1957 में जब केरल में दुनिया की पहली चुनी हुई साम्यवादी सरकार का गठन हुआ तो भारत के कम्युनिस्ट ने नारा दिया- चीन की नीतियां हमारी नीतियां होंगी। अति तो तब हो गई जब 1962 में भारत का चीन के साथ युद्ध छिड़ गया और कम्युनिस्ट पार्टी का एक धड़ा चीन के साथ खड़ा हो गया। इसका नतीजा सीपीआई में विभाजन और सीपीएम के उदय के रूप में सामने आया। चीन की नकल करते-करते वहां की तर्ज पर कुछ कम्युनिस्ट हथियार के बल पर भारत की सत्ता पर कब्जा का सपना देखने लगे थे। चारू मजुमदार और कानू सान्याल के नेतृत्व में पश्चिम बंगाल में सिलिगुड़ी के पास नक्सलबाड़ी गांव में भारतीय वामपंथियों द्वारा लगाई गई हिंसा की आग पर चाइना डेली मॉर्निंग स्टार अखबार ने खुशी जताते हुए लिखा कि उम्मीद है, यह जल्दी ही पूरे भारत में फैल जाएगा। कहना न होगा कि भारत के कम्युनिस्ट इस उम्मीद पर बहुत हद तक खरे उतरे। देश के कई राज्यों में आग की तरह फैले नक्सलबाड़ी आंदोलन ने ऐसे-ऐसे भयावह रूप अख्तियार किए जिसने इंसानी खून की नदियां बहा दीं। आज भी माओवादी हिंसा देश की आंतरिक सुरक्षा की सबसे बड़ी दुश्मन यदि बनी हुई है तो इसके लिए खुद को लोकतंत्र और मानवाधिकार के मसीहा के रूप में प्रस्तुत करने वाले भारतीय वामपंथी ही जिम्मेदार हैं। यहां इंडियन कम्युनिस्ट पार्टी नहीं, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया है। यह नाम ही बताता है कि भारत का कोई राजनीतिक दल नहीं है बल्कि किसी विदेशी राजनीतिक दल की भारत में खुली एक शाखा है। स्वाभाविक है कि इसकी प्राथमिक निष्ठा भारत के प्रति नहीं हो सकती है।
डॉ धर्मेन्द्र सिह