89 वर्ष और संस्कृत की निःशुल्क शिक्षा के प्रदाता राम यत्न शुक्ल ..भोलू सिह

 89 वर्ष की आयु में युवाओं को देते हैं निःशुल्क संस्कृत की शिक्षा, सरकार ने आचार्य रामयत्न शुक्ल को किया पद्मश्री सम्मान से सम्मानित

श्रीमान आचार्य रामयत्न शुक्ल (उत्तर प्रदेश)


किसी भी देश की संस्कृति और सभ्यता उस देश की पहचान होती है। हमारे देश में आज भी ऐसे लोग विद्यमान हैं जो भारत की संस्कृति और सभ्यता को जींवत रखे हुए हैं। इन्हीं महान लोगों में से एक हैं वाराणसी के रहने वाले आचार्य रामयत्न शुक्ल। 

रामयत्न शुक्ल 89 वर्ष की आयु में भी लोगों को ना सिर्फ संस्कृत की मुफ्त शिक्षा दे रहे हैं बल्कि वो भारत की संस्कृति और सभ्यता का ज्ञान भी आज के युवाओं को देकर उन्हें प्रेरित कर रहे हैं। 

जिस उम्र में लोग अक्सर थक कर घर बैठ जाते हैं, उस उम्र में आज भी आचार्य रामयत्न शुक्ल पूरे जोश के साथ बच्चों को शिक्षित करते हैं। वो इसके लिए 1 रूपये भी किसी से फीस नहीं लेते। उनकी इसी सेवाभाव और शिक्षा के प्रति लगाव को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान में से एक पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया है। शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में उत्कृष्ट सेवा देने वाले संस्कृत के प्रकांड विद्वान आचार्य रामयत्न शुक्ल के लिए युवाओं को संस्कृत पढ़ाना और उन्हें देश की सभ्यता से परिचित कराने का सफर तय करना इतना आसान नहीं था। आइए जानते हैं उनके जीवन का प्रेरणादायी सफर।


काशी विद्वत परिषद के अध्यक्ष हैं रामयत्न शुक्ल


1932 में उत्तर प्रदेश के वाराणसी में जन्में आचार्य रामयत्न शुक्ल काशी विद्वत परिषद के अध्यक्ष और संस्कृत के प्रकांड विद्वान है। आचार्य रामरत्न शुक्ल बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय में प्रोफेसर के पद पर अपनी सेवाएं दे चुके हैं। 89 वर्ष की आयु में भी आचार्य रामयत्न शुक्ल नई पीढ़ी को संस्कृत से जोड़ने की मुहिम चला रहे है। रामयत्न शुक्ल की बचपन से ही संस्कृत में विशेष रुचि थी। उनके पिता रामनिरंजन शुक्ल भी संस्कृत के विद्वान थें। आचार्य रामयत्न शुक्ल धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज और स्वामी चैतन्य भारती से वेदांत शास्त्र,पंडित प्रवर हरिराम शुक्ल से मीमांसा शास्त्र और पंडित रामचंद्र शास्त्री से दर्शन शास्त्र,योग आदि की शिक्षा ली थी। यही कारण है कि संस्कृत के वह प्रकांड विद्वान हैं। 


बच्चों को देते हैं निःशुल्क संस्कृत की शिक्षा


आचार्य रामयत्न शुक्ल 89 वर्ष की आयु में भी युवाओं को संस्कृत के प्रति जागरूक कर रहे है। युवा पीढ़ी को संस्कृत से जोड़ने के लिए वें उन्हें निःशुल्क शिक्षा देते हैं। वो किसी से एक रूपये तक फीस के रूप में नहीं लेते। आचार्य रामयत्न शुक्ल ने अष्टाध्यायी की वीडियो रिकार्डिंग तैयार करवायी है,जिसके माध्यम से संस्कृत के लुप्त होते ज्ञान को सहज रूप में नई पीढ़ी तक पहुँचाया जा रहा है। इसके लिए उन्हें वर्ष 2015 में संस्कृत के शीर्ष सम्मान 'विश्वभारती' से भी सम्मानित किया जा चुका है। वो युवाओं को संस्कृत पढ़ने और उसे समझने के लिए प्रेरित करने का कार्य भी करते हैं। 


पिता की इच्छा पूरी करने के लिए सीखी संस्कृत 


आचार्य प्रो. शुक्ल जब पाचवीं कक्षा के छात्र थे उस समय उनकी  गणित और अंग्रेजी में अच्छी पकड़ थी। इनमें ऊंचे अंक देखते हुए विद्यालय के प्रधानाचार्य आधुनिक शिक्षा दिलाना चाहते थे, लेकिन उनके पिता ने उन्हें संस्कृत पढ़ाने का निर्णय लिया। उनके पिता स्वयं संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। पिता की आस्तिकता और संस्कृत के प्रति प्रगाढ़ प्रेम व श्रद्धा ने उन्हें देववाणी की ओर मोड़ दिया। उन दिनों कक्षा पांच से ही संस्कृत शिक्षा दी जाती थी। इसके बाद संस्कृत पाठशाला से मध्यमा कर वे वाराणसी के धर्म संघ शिक्षा मंडल आए और यहां रह कर प्रथम गुरु रामयश त्रिपाठी के सानिध्य में आगे की शिक्षा प्राप्त की। प्रो. शुक्ल ने संपूर्णानंद (वाराणसेय) संस्कृत विश्वविद्यालय से आचार्य व पीएचडी की उपाधि प्राप्त की और सर्वप्रथम संन्यासी संस्कृत महाविद्यालय से अध्यापन-कार्य आरंभ किया। प्रो. शुक्ल गोयनका संस्कृत महाविद्यालय में प्राचार्य भी रहे। इसके अलावा एक वर्ष तक बीएचयू में वेदांत विषय के अध्यापक रहे। 


30 वर्षो से लगातार काशी विद्वत परिषद के हैं अध्यक्ष 


आचार्य रामयत्न शुक्ल ऐसे विरल विद्वान हैं जो कि देश की जानी-मानी विद्वत संस्था काशी विद्वत परिषद के लगातार तीस वर्षो से अध्यक्ष हैं। उन्होंने यह पद दर्शन-केशरी प्रो. केदारनाथ त्रिपाठी से ग्रहण किया था। यही नहीं अपने ज्ञान से बड़े-बड़े विद्वानों को परास्त कर चुके हैं। 1962 में प्रयाग कुंभ के समय माध्व सम्प्रदाय के लोगों ने चुनौती दी थी कि व्याकरण, न्याय और वेदांत का कोई भी विद्वान आकर शास्त्रार्थ कर सकता है। उनसे शास्त्रार्थ के लिए काशी से कोई भी विद्वान जाने को तैयार नहीं हो रहा था। अपने गुरु आचार्य रामप्रसाद त्रिपाठी के आदेश पर प्रो. शुक्ल वहां गए। उधर से बोलने वाले तीन विद्वान थे और इधर वे अकेले थे। जिसके बाद उन्होंने शास्त्रार्थ में काशी का डंका बजाया और विजयी हुए।


युवाओं को संस्कृत के प्रति प्रेरित करना ही है उद्देश्य


आचार्य रामयत्न शुक्ल युवाओं को संस्कृत के प्रति प्रेरित करना चाहते हैं। यही उनका मुख्य उद्देश्य है। वो कहते हैं कि आज संस्कृत से ही उन्हें बहुत कुछ मिला है। संस्कृत में रोजगार की अपार संभावनाएं हैं। भारत को विश्व गुरु बनाने में संस्कृत का योगदान रहेगा। इसलिए उनका उद्देश्य यही रहता है कि भारतीय युवा अपनी सभ्यता और संस्कृति से जुड़ सकें।


पद्मश्री सहित कई सम्मान से हो चुके हैं सम्मानित


आचार्य रामयत्न शुक्ल का संस्कृत के प्रति प्रेम किसी से छिपा नहीं है। यही कारण है कि वो आज कई सम्मान से सम्मानित हो चुके हैं।  आचार्य रामयत्न शुक्ल को वर्ष 1999 में राष्ट्रपति पुरस्कार, वर्ष 2000 में उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से केशव पुरस्कार, वर्ष 2005 में महामहोपाध्याय सहित अनेक पुरस्कार व सम्मान मिल चुके हैं। उनके नाम से दर्जनों पुस्तकें , लेख व शोध पत्र विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। यही नहीं भारत सरकार ने शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए उन्हें पद्मश्री  सम्मान से भी सम्मानित किया है।  


 निःशुल्क संस्कृत की शिक्षा देकर भारतीय संस्कृति को जींवत रखने वाले  आचार्य रामयत्न शुक्ल आज सही मायने में सभी के लिए प्रेरणास्त्रोत (Inspiration) है। उन्होंने अपनी कला और शिक्षा के दम पर अपनी सफलता की कहानी (Success Story) लिखी है। Bada Business आचार्य रामयत्न शुक्ल की कला और उनकी निःशुल्क सेवा भावना की तहे दिल से सराहना करता है। यदि आप Bada Business के बारे में अधिक जानकारी चाहते हैं तो आप हमारी वेबसाइट के इस लिंक https://www.badabusiness.com पर क्लिक कर सकते हैं।


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