राममंदिर जमीन क्रय मुद्दा,विपक्ष ,जातीय गणित और 2022 चुनाव



राम मंदिर का मुद्दा आप,सपा और कांग्रेस का सुयोजित षड्यंत्र है.केवल भाजपा के ही पास माइण्ड गेम वाले नही है.कुछ तो भारतीय जनता पार्टी से सीखे कुछ नकल के सहारे भाजपा को मात देरहे है.उत्तरप्रदेश में यह खेल चलेगा कि नही यह भविष्य के गर्त में छिपा है पर भजपा का अंतर्द्वंद भी माइंड गेम वालो लो प्रोत्साहित कर रहा है.सांगठनिक दक्षता के महारथी सुनील बंसल को छोड़ दे तो पूरा प्रदेश अपनी ढपली अपने राग की थाप दे रहा है.मूल्यों की बात तो पार्टी करती है पर उस बात का भी अवमूल्यन होता जा रहा है.जिस तरह पार्टी अपनी मूल पूजी का खाती चली चली जा रही है वह परस्पर विरोधाभाषी ही है.

चार वर्ष से ऊपर का समय किसी अपराजेय सी लगने वाली पार्टी को40 वर्षो के काम  करसकती और दिखा सकती है.संगठन में सामाजिक समीकरण देखने की परंपरा पुरानी है पर योग्यता,क्षमता व वरिष्ठता को तो अस्वीकार्य नही किया जाना चाहिए.लोकसभा,विधान सभाओं में प्रभाव से पहुचे वाले लोग एक पेज का इमला नही लिख सकते.पर हां बजट बेचना उनका जन्म सिद्ध अधिकार है,उसे रोकने का प्रयास ऊपर से नीचे तक कभी हुआ ही नही.2022 बीजेपी की अग्नि परीक्षा से कम नही होगा जहां एक एक कार्यकर्ता की चिंता पार्टी को करनी होगी.इस बार का विरोध आधुनिक तकनित से होगा.जी भाजपा का राम मंदिर अचूक प्रक्षेपास्त्र था उसमें सबकुछ सही होने के बाद भी विरोध पक्ष संशय डालने में सफल होगया.अब सरकार्यवाह कृष्ण गोपाल की डैमेज कंट्रोल की नीति को संघ,विश्व हिंदू परिषद और बीजेपी कितना सकारात्मकता से समाज को अनुप्रणीत कर पाते है यह समय बताएगा. फिलहाल जमीन क्रय कोलेकर संत समाज,और जनमानस सम्भरम में आगया है.

यह सत्य है मंदिर का पक्ष शत प्रतिशत सही है  पर कृष्ण पर भी मणि चोरी का आरोप समाज ने ही लगाया था ,उसी तरह मंदिर निर्माण समिति पर भी आरोप अनर्गल,असत्य व तथ्य हींन है.पर तुरन्त चुनाव का समय देखकर विपक्ष ने डेमेज कर दिया,अब कंट्रोल कैसे होता है यह देखना है.सारे आरोप 2022 को डेमेज करने की नीति और नियति से लेकर अनियमितता का हंगामा खड़ा किया जा रहा है

उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव जीतने और विरोधियों पर बढ़त बनाने के लिए तमाम राजनैतिक दलों ने ‘माइंड गेम’ शुरू कर दिया है,ताकि जनता के बीच उनकी पार्टी की लोकप्रियता का ग्राफ ऊपर और विरोधी दलों का नीचे की ओर खिसकता दिखाई दे. इसके लिए तमाम ‘टोने-टुटकों’ का सहारा लिया जा रहा है. दूसरों की खामियां तो अपनी खूबिया बढ़-चढ़कर गिनाई जा रही हैं. काले को सफेद और सफेद को काला दिखाया जा रहा है. रूठों को मनाया तो तमाम दलों के ठुकराए गए या फिर हासिए पर पड़े नेताओं को गले लगाया जा रहा है. सियासत के बाजार के पुराने चलन के अनुसार बड़ी मछलियां,छोटी मछलियों को खा जाती है की तर्ज कई बड़े दल, छोटे दलों का अपनी पार्टी में विलय की कोशिशों को भी धार देने में लगे हैं. सत्ता हासिल करने के लिए चल रहे मांइड गेम में किसी भी दल का नेतत्व पीछे नहीं है. सब अपनी ‘औकात’ के अनुसार गेम प्लान कर रहे हैं. 

भारतीय जनता पार्टी ,समाजवादी पार्टी,बहुजन समाज पार्टी और कुछ हद तक कांगे्रस एवं राष्टीय लोकदल भी इस गेम के बड़े खिलाड़ी है, जबकि छोटे दलों में अपना दल एस की अनुप्रिया पटेल, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के ओम प्रकाश राजभर, निषाद पार्टी के संजय निषाद, प्रगतिशाील समाजवादी पार्टी के शिवपाल यादव, ओवैसी की आॅल इंडिया मजजिलस-ए-इत्ताहादुल मुस्लिमीन, भीम आर्मी के चन्द्रशेखर ‘रावण’ आदि दलों के नेता भी इस चक्कर में हैं कि किसी तरह से उनकी पार्टी का किसी बड़े दल के साथ गठबंधन हो जाए ताकि वह अपनी सियासी नैया को किनारे लगाने में सफल हो जाएं. इन छोटे-छोटे दलों की बड़ी-बड़ी महत्वाकांक्षाएं इस लिए भी ‘हिलोरे’ मार रही हैं क्योंकि इन्हें लगता है कि अबकी से विधान सभा चुनाव में बडे़ सियासी दलों के बीच किसी तरह का कोई गठबंधन होने की संभावना नहीं होगा, जिस वजह से छोटे दलों की ‘लाॅटरी’ खुल सकती है. बहरहाल, सियासत के इस मांइड गेम में कभी कोई दल भारी पड़ता नजर आता है तो कभी कोई दूसरा दल. तमाम दलों के आकाओं द्वारा किसी भी दूसरी पार्टी के नेता को अपने साथ लाने क दौरान उस नेता का ऐसा औरा दिखाया जाता है,जैसे पार्टी में आने वाला नेता पूरी सियासी बिसात ही पलट देगा.

 इसी लिए अपने गृह क्षेत्र से लगातार तीन बार चुनाव हार चुके कांग्रेस नेता जितिन प्रसाद बीजेपी में शामिल होते हैं तो भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा, अमित शाह से लेकर यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ तक उनका महिमामंडन करने में जुट जाते हैं. उनका आना बीजेपी की मजबूती के लिए अहम बताया है. इसे यूपी में ब्राह्मण वोटों के छिटकने से रोकने को बीजेपी की रणनीति का हिस्सा बताया जाता है. हालांकि, यूपी की सियासत पर नजर रखने वालों का कहना है कि बीजेपी की ब्राह्मणों में पैठ अब भी मजबूत है, लेकिन वह मांइड गेम के सहारे ब्राह्मणों के बीच अपनी सियासी जमीन और पुख्ता करने में जुटी है. उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों की हिस्सेदारी 9 से 11 फीसदी तक बताई जाती है. करीब तीन दशक पूर्व तक जब यूपी में कांग्रेस सत्ता में थी, तब उसके अधिकांश मुख्यमंत्री और बड़े चेहरे ब्राह्मण ही हुआ करते थे. 

इसके बाद मंडल और कमंडल की राजनीति में सामाजिक समीकरणों ने पिछड़ा नेतृत्व की उर्वरा जमीन तैयार की. मंडल-कमंडल की राजनीति के बीच उभरी समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी भी समय-समय पर ब्राह्मणों की भागीदारी को लेकर गोटियां बिछाने में लगीं. 2007 में बसपा सुप्रीमों मायावती ने सतीश चंद्र मिश्र को आगे बढ़ाकर ब्राह्मणों-दलित गठजोड़ के सहारे सत्ता हासिल की थी. हालांकि, 2014 में नरेंद्र मोदी के बीजेपी का चेहरा बनने, हिंदुत्व की राजनीति के उभार के बीच ब्राह्मण बीजेपी की ओर लौटे और अब तक उनका झुकाव काफी हद तक कायम है, जबकि विपक्ष लगातार इस कोशिश में है कि किसी भी तरह से योगी का चेहरा ठाकुरवाद से जोड़कर ब्राह्मणों के बीच नाराजगी पैदा की जा सके.

 आम आदमी पार्टी तो लगातार कुछ घटनाओं का हवाला देकर सीएम योगी पर ’ठाकुरवाद’ को पालने-पोसने का आरोप लगाता रहा है. हालांकि, योगी की छवि पर ऐसे आरोप कभी टिक नहीं पाए. योजनाओं में हिस्सेदारी और सत्ता में भागीदारी गिना बीजेपी इन आरोपों को धता बताती रही है. सरकार में 9 मंत्री ब्राह्मण हैं तो प्रदेश के मुख्य सचिव, डीजीपी से लेकर गृह सचिव तक के अहम पदों पर ब्राह्मण बैठे हैं. गौरतलब हो,पिछले साल जुलाई माह में कानपुर के गैंगेस्टर विकास दुबे के एनकाउंटर के बाद से विपक्ष ब्राह्मणों को साधने में लगा है.समाजवादी पार्टी ने महर्षि परशुराम और स्वतंत्रता सेनानी मंगल पांडेय की मूर्तियां लगाने की घोषणा की तो इस अभियान में बसपा प्रमुख मायावती भी पीछे नहीं रहना चाहती हैं.

 उन्होंने पहले सरकार को ब्राह्मणों की उपेक्षा न करने की नसीहत दी और कहा कि सत्ता में आने के बाद वह परशुराम की मूर्तियां लगवाएंगी. बात कांग्रेस की कि जाए तो उसने भी ब्राह्मणों को साधने के लिए जितिन प्रसाद की अगुवाई में ब्राह्मण चेतना परिषद बनाई थी. हालांकि इसके बाद भी उप-चुनावों में विपक्ष की कवायद बेअसर रही थी. बीजेपी ने 7 में 6 सीटें जीतीं. इसमें ब्राह्मणों के प्रभाव वाली देवरिया और बांगरमऊ सीट भी शामिल थी. जबकि, बांगरमऊ में कांग्रेस ने प्रभावशाली ब्राह्मण परिवाार का चेहरा उतारा था. देवरिया में सपा ने पूर्व मंत्री ब्रह्माशंकर त्रिपाठी को उम्मीदवार बनाया था.

अब देखना है निरपेक्ष जितिन प्रसाद कितना  बीजेपी के ब्राह्मण मतों पर प्रभाव छोड़ कर पार्टी के मत प्रतिशत को बढ़ाते है.भाजपा विश्व की पहली ऐसी पार्टी है जिसे अपनी पूजी पर विश्वाश नही होता,उसे तो बाहरी और चमक दमक वाला नेता शगुन लगता है.पर समय सबका उत्तर है.दशा दस साल सबकी चलती है.

जब सब कुछ दाव पर है तब सरकार कार्यकर्ताओ के समायोजन में रुचि  ले रही है.कार्यकर्ता की आँखे पथरागयीं है,कोख धंस गयी है.उसके पास पार्टी के वरिष्ठ जनो की ओर कातर भाव से देखने के अतिरिक्त कुछ भी आशा नही है.

आकड़े सोशल मीडिया से

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