बस्ती, पहले तो गूगल की फ़ौज ने छोटे समाचार पत्रों को खूब सब्जबाग दिखाया, कहा अलादीन के चिराग की तरह परिश्रम करने पर आर्थिक,मानसिक उत्थान की जिम्मेदारी गूगल और नवलेखा के समवेत प्रयास से रहेगा, पर कोविड का बहाना बनाकर गूगल ने अपने 80 प्रति शत फील्ड स्टाफ की छूट्टी कर दिया।असंख्य यवुक कोरोना काल मे भयंकर बेरोजगारी के शिकार होगये।मै व्यक्तिग रूपसे अनेक युवाओं को जनताहूं जिन्हें कोरोना काल मे गूगल ने भुखमरी का मुंह तक दिखा दिया।अब नवलेखा प्रलकप से जुड़े अखबारों व सम्पादकों पत्रकारों की स्थिति गूगल ने और असमंजस में डाल दिया।।
बताते है गूगल के नवलेखा प्रकल्प के अधिकारियों की कथनी करनी में बड़ा अंतर है।गूगल मुख्यालय नई दिल्ली दिए गए मोबाईल नम्बर पर फोन करने सर फोन ही नही उठाता. औऱ की बात तो में नही जानता पर हिन्दी भाषी क्षेत्र से नवलेखा प्रकल्प की जड़े अब हुलस गयी है।अधिकांश प्रकाशकों का अनुभव साझा कर रहा हूं कि "सब गूगल के नवलेखा"प्रकल्प से परेशान व हतप्रभ हैं। लाखों की संख्या के पाठकों के बावजूद सम्पादकों, प्रकाशकों की नवलेखा से तटस्थता बढ़ती जा रही है।
अगर गूगल की यही नियति "वंचिका" की है तो हमारे जैसे प्रकाशकों का नवलेखा प्रकल्प से हाथ खींच लेना ही बेहतर है।न कोई सम्पर्क सूत्र,न कोई पूछ ताछ,न कोई पुरसाहाल आखिर कोई कबतक नवलेखा के सहारे पतवार चलायेगा ?
जब नवलेखा प्रकल्प आरम्भ हुआ था तब मानो छोटे समाचार पत्रों को लगता था संजीवनी मिलगई।
पर
कहां तो तयथा चिरागा,हर घर के लिए,कहां अब मयस्सर नहीं शहर के लिए..