संघ विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन है। संघ में अनुशासन और सम्मान का मापदंड आम स्वयंसेवक से लेकर सरसंघचालक तक के लिए एकसमान ही है। अपनी भूमिका को रेखांकित करते हुए डॉ. मोहन भागवत ने बताया था कि उनकी दिनचर्या संघ द्वारा निर्धारित की जाती है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नए सरकार्यवाह का चुनाव एक महत्वपूर्ण निर्णय है। ऐसा इसलिए, क्योंकि संघ के पदानुक्रम में सरकार्यवाह दूसरे पायदान पर आते हैं। कार्यपालक की भूमिका में उनके पास संगठन के दैनंदिन कार्यों का दायित्व होता है। सरकार्यवाह के चुनाव से जुड़ा दिलचस्प पहलू यह है कि वह आमसहमति से होता है। संघ की अन्य परंपराओं की तरह इसका फैसला भी पूर्ण सर्वानुमति के बाद सामूहिक निर्णय प्रक्रिया से होता है। संघ सामूहिक संकल्प से आने वालों वर्षों के लिए जो दिशा तय करता है, सरकार्यवाह उसे उस दिशा में ले जाते हैं। सरकार्यवाह का चयन तीन वर्ष के लिए होता है। जहां सरसंघचालक संघ के मार्गदर्शक एवं संरक्षक की भूमिका में होते हैं, वहीं इतने विशाल संगठन का वास्तविक संचालन सरकार्यवाह के हाथ में होता है। इस कार्यसंचालन में सहयोग के लिए सह सरकार्यवाहों की एक टीम होती है। नए सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले वर्ष 2009 से सह सरकार्यवाह की भूमिका में ही थे और खासे अनुभवी माने जाते हैं।
संघ विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन है। उसके अनुषंगी संगठनों की सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन के सभी पहलुओं में गहरी पैठ है। संघ के दूसरे सबसे महत्वपूर्ण पद पर पहुंचकर अब दत्तात्रेय होसबले संगठन के विस्तार और संघ के शताब्दी समारोह की तैयारियों को आगे बढ़ाने के अभियान पर ध्यान केंद्रित करेंगे। चार साल बाद 2025 में संघ की स्थापना के सौ वर्ष पूरे हो जाएंगे।
कई भाषाओं के जानकार दत्तात्रेय होसबले की जड़ें कर्नाटक से जुड़ी हैं, गत एक दिसंबर को 65 वर्ष के हुए दत्तात्रेय होसबले की जड़ें कर्नाटक से जुड़ी हैं। उनका जन्म शिमोगा जिले के होसबले गांव में हुआ। तीन भाई और तीन बहनों के उनके परिवार का संघ से जुड़ाव रहा। संघ में होसबले ‘दत्ताजी’ के नाम से लोकप्रिय हैं। वह कई भाषाएं बोल लेते हैं। संस्कृत, तमिल, कन्नड़, अंग्रेजी और हिंदी पर उनकी अच्छी पकड़ है। वह अंग्रेजी साहित्य के छात्र रहे हैं। पढ़ने का उन्हें बहुत शौक है। अपनी व्यस्त दिनचर्या से भी वह अध्ययन के लिए समय निकाल ही लेते हैं। अध्ययन की अभिरुचि को उन्होंने कायम रखा हुआ है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में उनकी जड़ें बहुत गहरी हैं। वह सुस्पष्ट विचारक हैं, जिन्हें समकालीन भारत और उसके समक्ष चुनौतियों की गहन समझ है।
दत्तात्रेय होसबले छात्र जीवन के दौरान 1972 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में हुए शामिल, वर्ष 1968 में वह संघ से जुड़े। छात्र जीवन के दौरान वर्ष 1972 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में शामिल हुए। यह जुड़ाव आग से खेलने जैसा था। ऐसा इसलिए, क्योंकि रचनात्मक अभिरुचि के चलते वह फिल्म निर्माण में सक्रिय होना चाहते थे। एक स्क्रीनप्ले पर काम भी कर रहे थे, लेकिन नियति को तो कुछ और ही मंजूर था। इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए भयावह मीसा कानून के तहत उन्हें 14 महीने जेल में गुजारने पड़े। एक तेजतर्रार कार्यकर्ता, आपातकाल के मुखर आलोचक और नागरिक अधिकारों के दमन के विरोध ने उन्हें पूर्णकालिक प्रचारक बना दिया। इस प्रकार फिल्में बनाने का सपना पीछे छूट गया और राष्ट्र के प्रति समर्पण एवं सेवा की लंबी यात्रा आरंभ हुई।
विद्यार्थी परिषद में उनकी पारी बहुत लंबी रही। वह 1992-2003 के बीच परिषद के राष्ट्रीय महासचिव रहे। छात्रों की कई पीढ़ियां आज भी उन्हें अपने संरक्षक के रूप में याद करती हैं। छात्रों पर उनका व्यापक प्रभाव रहा। वह छात्रों एव युवाओं के विश्व संगठन (WOSY) के संस्थापक भी रहे। यह भारत में अध्ययन कर रहे दुनिया भर के छात्रों का संगठन है। एक वक्ता के रूप में खुद मैंने उनके कई सेमिनारों में भाग लिया है, जिसमें यही अनुभव हुआ कि यह विश्व के कोने-कोने से आए प्रतिभाशाली और बुद्धिजीवी छात्रों के एक अद्भुत संगम वाला मंच है। उन पर भारतीय अनुभवों की छाप दिखती है और छात्र समुदाय के बीच यह संगठन खासा लोकप्रिय है। प्रकांड विद्वान और लेखक दत्ताजी ने कन्नड़ पत्रिका ‘असीमा’ शुरू की और साहित्यिक-बौद्धिक उपक्रमों में सक्रिय रहे। कई प्रख्यात बुद्धिजीवी उनके घनिष्ठ मित्र हैं। साथ ही साथ दत्ताजी राष्ट्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण सांगठनिक पदों पर आगे बढ़ते गए और इसी में सबसे ताजा पड़ाव है सरकार्यवाह पद पर ताजपोशी।
एक ऐसे समय में जब संघ में बड़ा बदलाव हो रहा है तो टीवी पर अक्सर ऐसी परिचर्चा सुनने को मिलती है कि नए सरकार्यवाह के नेतृत्व में आखिर संघ कैसे बदल जाएगा? यह दरअसल संघ को लेकर सतही सोच को ही दर्शाता है। जैसे कि सरकार्यवाह का चुनाव आम सहमति से होता है, उसी प्रकार संघ के निर्णय और उसे दी जाने वाली दिशा भी सर्वानुमति से तय होती है। ऐसे में संघ को लेकर ‘परिवर्तन’ और ‘नई दिशा’ जैसे जुमले अटकलबाजी और मनोरंजन का माध्यम मात्र ही हैं। अतीत में पारित किए गए संकल्पों पर दृष्टि डालना ही अगले एक वर्ष की थाह लेने का सबसे बेहतर संकेतक है। ये संकल्प अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा के अभिन्न अंग हैं। इसके गठन के बाद से यही परंपरा चली आई है। इन संकल्पों में देश के समक्ष मौजूद परिस्थितियों के अनुरूप संघ के विचार एवं लक्ष्य रेखांकित होते हैं।
संघ में अनुशासन व सम्मान का मापदंड आम स्वयंसेवक से लेकर सरसंघचालक तक के लिए एकसमान
सरसंघचालक के संरक्षण एवं मार्गदर्शन में सरकार्यवाह और उनकी टीम इन लक्ष्यों की पूर्ति के लिए कार्ययोजना एवं रणनीति तैयार करती है। संघ के जानकार एवं लेखक डॉ. रतन शारदा से एक हालिया संवाद के दौरान जब मैंने संघ में सांगठनिक पदानुक्रम को लेकर प्रश्न किया तो उन्होंने एक दृष्टांत से इसे समझाया। उन्होंने बताया कि संघ में अनुशासन और सम्मान का मापदंड आम स्वयंसेवक से लेकर सरसंघचालक तक के लिए एकसमान ही है। अपनी भूमिका को रेखांकित करते हुए डॉ. मोहन भागवत ने बताया था कि उनकी दिनचर्या संघ द्वारा निर्धारित की जाती है और संगठन के कर्ताधर्ता की भूमिका में यदि सरकार्यवाह उनकी उपस्थिति कहीं और चाहते हैं तो उन्हें वहां जाना पड़ेगा। विनम्रता एवं अनुशासन का ऐसा स्तर संघ की परंपरा को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त करता है। इस प्रकार नए सरकार्यवाह का चुनाव एक महत्वपूर्ण अवसर होने के साथ ही एक संगठन के रूप में संघ की निरंतरता का प्रतीक भी है।