डाॅ. दशरथ प्रसाद यादव
माई डियर सिस्टर्स एण्ड ब्रदर्स एलांग विद मदर्स-फादर्स एण्ड सो आन, मुझे आपसे विनती करनी है कि आइये! मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डाला जाय। बगैर इसके मधु नही मिलेगी। या फिर इसके बीच मधुमक्खी एवं हमारे मध्य का बिचैलिया इसे फितरत के साथ निकाल खायेगा। खाता-तो भी ठीक था पेटेंट कराकर बेंच देगा वह भी भ्रष्ट लोगों के हाथ।
वास्तव में इसमें सिर्फ ‘भ्रष्ट’ शब्द ही ऐसा है जिसे सब जानते हैं, समझते हैं, बूझते हैं, अण्डरस्टैंड करते हैं- सो आन-करते ही हैं पर बहुधा-कम, अस्पष्ट, दोअर्थी, मुलम्मा चढ़ाकर या नही बोलते हैं। इसका मुझे व्यक्तिगत तौर से खेद है।
डियर मैडम्स एवं सर्स, क्षमा मत करियेगा मुझे न ही भ्रष्टाचार करने वालों को- जो जुबान है तो बोलिये, भ्रष्ट लोगों के भेद खोलिये। कौटिल्य ने फरमाया है ‘‘अपनी जीभ पर रखे हुए शहद अथवा विष का स्वाद नही लेना जिस तरह असम्भव है, उसी तरह यह भी सम्भव नही है कि राजकोष के कर्मचारी उस संचित धन का किंचित स्वाद न लें।
तैरती हुई मछली के विषय में यह पता नही चलता कि उसने कब पानी पी लिया। इसी तरह यह जान पाना सम्भव नही है कि उपक्रम का प्रभारी कब धनराशि में फेर-फेर कर लेता है।
केवल दण्ड की शक्ति से यह सम्भव है, जब अपराध के अनुरूप उसका योग किया जाये और यह न सोचा जाये कि दण्डित होने वाला व्यक्ति राजपुत्र है या शतु। केवल उसी से वर्तमान और भावी संसार की रक्षा हो सकती है’’।
यह मानना कि ‘जनता’ जन्मना भ्रष्ट होने के लिए अभिशप्त है। न केवल अनुचित है वरन् हमें अपने दायित्वों-कर्तव्यों के प्रति विमुखता की ओर प्रेरित करती है। वास्तव में आदर्श-यथार्थ एवं जमीनी हकीकत में इसे देखा-पढ़ा, समझा जाना चाहिए। हमारे देश में समाज सुधारकों ने संतो ंके आदर्श चरित्र को महत्वपूर्ण माना है। वैचारिक स्थल पर व्यवस्था के प्रति सुदृढ़ कठोरता, नैतिकता के प्रति मजबूत उदारता का लोप इसमें होने से भ्रष्टाचार चरित्र कार्य व्यवहार तथा व्यवस्था के प्रत्येक अंग-प्रत्यंग में व्याप्त है। प्रचलन में है-‘‘लेता तो है लेकिन काम कर देता है’’। ‘‘गुड़हल का फूल है न महके न गंधाये’’ क्या फायदा है अनुत्पादक ईमानदारी की वगैरह-वगैरह। सुल्ताना डाकू नाटक में वह लूटता है तो गरीबों में बाॅटता है। क्या राज- राज तो अब रहा नही है ‘सरकार’ है सरकार का यही काम भ्रष्टाचार की जड़ में नही है?
रिश्वत है। जब चतुर निवेश की तरह इसका प्रयोग हो रहा है तो करना ही क्या? जब रिश्वत देने से काम हो जाये तो उसे लोग बुरा तक नही मानते-बुरा तब मानते हैं जब उन्हें न चाहते हुए भी रिश्वत देनी पड़ती है। क्यों?
बाइबिल में उल्लेख है- अनीति से प्राप्त किये गये धन, बल, विद्या, पद प्रतिष्ठा का सम्मान नही करना चाहिए। ऐसा कहाॅ सम्भव है? यहाॅ तो मिले तो लोग जहर खा लें या जहर खाने की घोषणा हिन्दी में नही अंग्रेजी में या अन्य भाषा में कर दें।
रिचर्ड लेनाय ने दी स्पीकिंग ट्रीः स्टडी आफ इण्डियन कल्चर एण्ड सोसाइटी के पृष्ठ 294 पर उद्धृत किया है। ‘भारत के पास अपनी विकसित नैतिक व्यवस्था नही है- यह अच्छे और बुरे कार्यों में विभेद करने की जगह उस पौराणिक बोध पर ही केन्द्रित रहा है जो अच्छाई और बुराई में समान रूप से व्याप्त है‘। सीधे तौर पर इस बारे में सहमत या असहमत होना उचित नही है लेकिन नीति का आधार भारत में उपयोगिता की जमीन पर टिका हुआ है। इसमें इज्जत भी जुड़ी रहनी है। रही बात जनता की तो दूसरों पर हो तो इसे नकारती है, आलोचना करती है लेकिन लाभ मिल जाये तो सहज स्वीकृति दे देती है। इसके लिए कानून एवं व्यवस्था की भूमिका अति महत्वपूर्ण है। अच्छा भ्रष्टाचारी कम ही फंसता है जबकि उसकी सम्पत्ति दिन रात दूनी चैगनी होती है। उसे न जनता देख पाती है और न ही सरकार देख पाती है। सरकारी लोगों का तो कुछ कहना ही नही ‘राग दरबारी’ से काफी आगे निकल गये है। पेटेंट तक बेचने वाले लोग हैं। अब नैतिकता गयी ताक पर केवल दण्ड पर ही यह ज्यादा आधारित है।
प्रोफेसर एफ. एच. बेली ने लिखा है ‘हिन्दू नीति शास्त्र का एक सार्वजनिक चेहरा है- धर्म अथवा सामान्य नियम-और इसके साथ मनुष्य की अपनी समझ और व्यवहारिक नियम हैः जिनसे वह अपने चयनित सिद्धान्तों और अपनी अपनायी कार्य नीति में अन्तर कर सकता है‘।
निराकरण के सैकड़ों उपाय हैं और क्षेत्र भी लेकिन अतिसंक्षिप्त रूप में जो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है इसमें राजनीतिक दलों की फंडिंग-चन्दा प्रणाली में सुधार और इनकी वित्तीय जबाबदेही महत्वपूर्ण है। इसमें तकनीकी का प्रयोग हो तो अच्छा हो। इसके लिए विधवत कानूनी प्रक्रिया निर्धारित हो, जहाॅ भी प्राकृतिक संसाधनों, भूमि, पहाड़, जल, जंगल आदि का अधिग्रहण हो वहाॅ कानून स्पष्ट होना चाहिए। गड़बड़ी पर सरकार से वसूली की जानी चाहिए, वसूली के लिए पदस्थ सरकारी नेतृत्वकर्ता भी जिम्मेदार हो।
भ्रष्टाचार के मामले में समयबद्ध सुनवाई, तत्परता से दण्ड प्रक्रिया का प्रयोग होना चाहिए इसके लिए ठोस रूप से लोकायुक्त या अन्य संस्था को मजबूत आधार देना होगा। चुनाव सुधार हो, जितनी धनराशि व्यय होनी चाहिए उस पर दृष्टि रहे। व्यूरोक्रेट्स भी इससे जुड़े रहते हैं। उन पर कार्यवाही होनी चाहिए।
राइट टू पब्लिक सर्विसेज- लोक सेवा के अधिकार का कानून हो जो कानून बने हैं उन पर सही समय से अमल हो, नये प्रयोग कर गरीबों को शिक्षा, व्यवसाय, उच्च पदों पर नियुक्ति तथा स्वास्थ्य आदि सेवाओं से आच्छादित किया जाय। अर्थदण्ड पर्याप्त लगाया जाया तत्काल वसूली हो, न्याय की सीमा से देखते हुए प्रक्रिया में तत्परता एवं प्रतीति को बढ़ावा मिले। शिकायतों का निस्तारण मौके पर हो, निर्भीक एवं पक्षधरता के बिना हो।
राज्य के संसाधनों का वितरण, अधिग्रहण एवं वसूली नियम संगत तथा बिना किसी भेदभाव के हो, नौकरी में पेंशन की व्यवस्था हो ताकि जो ईमानदार सेवक हो वो बेईमान न हों। जबकि अन्य क्षेत्रों में शुरू से ही कमाई के लिए आए हैं सेवा के लिए नही की भावना से भ्रष्टाचार फैलता है। भूमि अधिग्रहण एवं मूलभूत आधार के लिए अनावश्यक अत्यधिक व्यय न किया जाय। सूचना की अधिकार को विस्तारित किया जाय। जूडिशियल स्टैडडर्स एवं एकाउन्टबिलटी जाॅच के लिए पुलिस के अलावा अन्य व्यवस्था होनी चाहिए, वह संघ या राज्य के अधीन हो न कि सरकारी सेवकों के या नेताओं के हाथ की कठपुतली हो, महाभियोग के लिए मानदण्ड कम करना चाहिए, भ्रष्टाचार निवारण कानून 1988 के पैरा 7 से 15 तक के प्राविधानों को प्रचारित करना चाहिए। फास्टट्रैक को बनाना चाहिए आदि।
बहरहाल नैतिकता के अवमूल्यन स्थिति में चरित्र एवं कार्यव्यवहार का प्रभावित होना स्वाभाविक है पर इस पर अंकुश लगना ही चाहिए। भ्रष्टाचार को कभी भी प्रश्रय नही देना चाहिए।