जनजाति वर्ग के धर्म को लेकर निरर्थक विवाद,जनजाति के लोग सनातन परंपरा को अविभाज्य अंग !देश के उत्थान में इनका अप्रतिम योगदान !




अनील कुमार बिश्वाल

 

जनजातियों के धर्म अब एक नया विवाद देखने को मिल रहा है ।  झारखंड, ओडिशा व  अन्य प्रदेशों में जहां अनुसूचित जनजाति वर्ग के भाई-बहन अधिक संख्या में हैं  जैसे कि वहां पर जनजातियों के धर्म को लेकर एक बहस शुरू करवायी जा रही है । यद्यपि एक नया विषय नहीं है लेकिन 2021 के जनगणना से ठीक पहले इस विवाद को खड़ा किया किया जा रहा है  । इसमें यह तर्क दिया जा रहा है कि जनजातियों का धर्म हिंदू नहीं है अतः  उन्हें अलग  धर्म की मान्यता प्राप्त हो ।  झारखंड के विधानसभा में तो बाकयदा  सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा इस संबंध में एक प्रस्ताव पारित कर जनजातीय धर्म को सरना धर्म के रूप में मान्यता देने के लिए प्रस्ताव  तक पारित किया  गया है ।

केवल इतना ही नहीं  विभिन्न समाचार पत्रों में  आलेख लिखे जा रहे हैं ,  जिसका सार यही है कि जनजाति वर्ग हिंदू नहीं है, वे अलग हैं ।  जनजाति वर्ग के लोगों को अहिंदू प्रमाणित करने के लिए कुछ निश्चित विचारों के बुद्धिजीवी लगातार प्रयास करते दिख रहे हैं । उनकी मांग है जनजाति वर्ग को आगामी जनगणना में हिंदू नहीं लिखा जाना चाहिए । उन्हें हिन्दू बताना  उनकी धार्मिक स्वतंत्रता का हनन है  । 

 वर्तमान में जनगणना के समय व्यक्ति का धर्म या रिलीजन के बारे में जानकारी देने की जो व्यवस्था है वहां हिंदू मुस्लिम सिख आदि के साथ-साथ एक अन्य  का भी विकल्प है ।  वहां पर जनजाति वर्ग कोई विकल्प नहीं है ।  इस सूची में सरना को जोड़े जाने की मांग ये लोग कर रहे हैं ।  इस अभियान का नेतृत्व करने वाले लोग यह कह  रहे हैं यदि इस बार उनकी मांग पूरी नहीं होती तो  2021 की जनगणना में जनजातीय लोग  अपने आप को हिन्दू बताने के बजाय वहां स्थित अन्य विकल्प में पंजीकृत कराएं । वे इसके लिए अभियान चला रहे हैं  । मान लीजिए कि देश में जनजातीय लोग अधिक संख्या में अन्य विकल्प पर पंजीकरण करवाते हैं तो में आगामी  जनगणना 2031 में  वे   सरकार पर इस  नए धर्म की मान्यता देने के लिए मजबूर कर सकेंगे ।


जनजातीय लोगों को अहिंदू बताने के पीछे का मूल उद्देश्य क्या है,  यह सब  क्यों किया जा रहा है  इसके पीछे कौन सी शक्तियां हैंइस पर चर्चा किए जाने की आवश्यकता है । वास्तव में इस अभियान का उद्देश्य जनजाति वर्ग को  हिंदुओं से अलग करना या उनकी विशेष पहचान स्थापित करने  बहाने विभेद खड़ा करना और समाज में वर्ग संघर्ष संघर्ष की ओर के लिए मार्ग प्रशस्त करना है । इसके पीछे की शक्तियां चाहती हैं कि यदि  एक बार उन्हें  अपने पहचान से दूर कर दिया जाए व उन्हें  हजारों सालों के  संपर्क संबंधों से काट दिया जाए तो उन्हें अन्य विदेशी मजहबों में मतांतरित करना आसान हो जाएगा ।

हमारे देश के जो लोग में वर्तमान में इस अभियान का नेतृत्व कर रहे हैं वह जाने या अनजाने में विदेशी षड्यंत्रकारी शक्तियों के चंगुल में फंसे हैं ऐसा  प्रतीत होता है ।

इस तरह की रणनीति अनेक पहले अफ्रीकी देशों में किया जा चुका है । यह एक लंबी साजिश का हिस्सा है विदेशी षड्यंत्र के  कार्यों में हमारे देश के कुछ निश्चित विचारधारा में विश्वास करने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी भी शामिल है ।

 201की जनगणना के दौरान  अन्य में मात्र 0.66 प्रतिशत लोग  अपने आप को अन्य कालम में पंजीकृत करवाया था । यदि जनजाति बंधु अपने आप को हिन्दुओं से अलग मानते थे तब वे अपने आप को अन्य कालम में पंजीकृत करनवा सकते थे ।

अब देश के विभिन्न राज्यों में जो परंपरा-  संस्कृति है उस पर चर्चा कर लें । ओडिशा का ही उदाहरण को लें । ओडिशा में भगवान जगन्नाथजी से जुडे संस्कृति अनादि काल से है । भगवान जगन्नाथजी की पूजा वनवासी राजा द्वारा किया जा रहा था  । रथयात्रा की परंपरा हजारों सालों से है । पुरी के जगन्नाथ मंदिर में जो दईतापति सेवायत रथयात्रा का आयोजन करवाते हैं वे वनवासी शबर राजा के बंशज हैं । माता शबरी के बैर खाये बिना रामायण कैसे पूरा हो सकता है । केवल जगन्नाथजी ही नहीं केरल के भगवान अयप्पा, आंध्र के तिरुपति बालाजी भगवान सभी का वनवासियों के साथ निकट संबंध रहा है । ओडिशा के कोरापुट जिले के प्रसिद्ध गुप्तेश्वर मंदिर का पूजारी ही वनवासी है ।

जनजाति परंपरा में कुल देवता,  ग्राम देवता, देवी की पूजा कर प्रसाद खाने की परंपरा रही है जो भारत की मूल परंपरा से ही है ।  अब उन्हें गैर हिंदू के रूप में चित्रित करने का प्रयास किया जा रहा है । उनके सरल हृदय में जहर  कौन भर रहा है । उनकी सादगी सरलता का लाभ उठाकर उन्हें भ्रमित किया जा रहा है इन सभी साजिशों का रिमोट विदेश में है । विशिष्ट शोधकर्ता राजीव मल्होत्रा अरविंद नीलकंठन ने ब्रेकिंग इंडिया नाम के पुस्तक में इन साजिशों का उल्लेख किया है । उन्होंने अपनी पुस्तक में जिन साजिशों की चर्चा की है वह धीरे-धीरे घटित हो  रहा है

 

 

भारत का जनजातीय समाज मूल रूप से प्रकृति उपासक हैं  । इसलिए उन्हें अलग वर्ग के रूप में बताया जा रहा है  । प्रकृति उपासना भारत की मूल परंपरा का ही अभिन्न अंग है । भारत की सनातन परंपरा नदी समुद्र सूर्य चंद्र तुलसी का पौधा अन्य पौधों को प्राचीन काल से पूजता आ रहा है  । तो क्या हम मान ले कि इन्हें पूजा करने वाला हर व्यक्ति हिंदू से अलग है । उपासना पद्धति में भिन्नता हो सकती है । यही हिंदुत्व की विशेषता  है । उपासना पद्धति में भिन्नता  केवल सनातन हिंदू धर्म में ही स्वीकृत है  ।  विदेशों में जन्में बाकी अन्य  सेमेटिक मजहबों में  छूट नहीं है।  सरना उपासना पद्धति हो सकती है ,  लेकिन इसी आधार पर जनजाति वर्ग को गैर हिंदू बताना का कोई आधार नहीं है  ।

इन साजिशों के बारे में चर्चा करने से पूर्व इसकी पृष्ठभूमि में जाना होगा । भारत पर शासन करने वाले गोरे लोगों ने भारतीय समाज को विभाजित करने के लिए आर्य आक्रमण सिद्धांत का प्रचार प्रसार किया था । दुर्भाग्य से इस औपनिवेशिक थ्योरी को हमारे बच्चों के मन में स्कूली पाठ्यक्रमों में जरिये भरा गया । अब यह थ्योरी धराशायी हो चुकी है । आधुनिक शोध ने यह प्रमाणित कर दिया है कि यह केवल गोरों की कपोल कल्पना थी । बाबा साहब अंबेडकर ने शुद्र कौन नामक  अपनी पुस्तक में अग्रेजों के आर्य आक्रमण सिद्धांत को तार्किक रुप से गलत बताया । उन्होंने कहा कि आर्य बाहर से  नहीं आये थे । हरियाणा के राखीगढी में मिले कंकाल के डीएनए टेस्ट ने प्रमाणित कर दिया है कि मध्य एशिया से किसी प्रकार का  माइग्रेशन भारत में नहीं हुआ था ।

इसलिए इस तरह के षडयंत्रों को पहचानने की आवश्यकता है । भारत के वनवासी समाज को इस साजिशों से बचाने के लिए प्रयास करने के साथ साथ साजिशकर्ताओं की पहचान किया जाना जरुरी है ।

भुवनेश्वर

ओडिशा

(लेखक भुवनेश्वर में पत्रकार हैं )

 

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