एएमयू कब उतारेगा दरभंगा महाराज का कर्ज
आर.के. सिन्हा
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) के शताब्दी समारोह को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संबोधित करके एक बेहद सकारात्मक संदेश दिया है। उन्होंने एक तरह से देश के मुसलमानों का आहवान किया कि वे देश की मुख्यधारा से अपने को जोड़ें। इसमें कोई शक नहीं है कि मुसलमानों के बीच शिक्षा के महत्व के प्रसार-प्रचार में एएमयू ने बेहतरीन योगदान दिया है। यह विश्वविद्यालय भारत की अमूल्य धरोहर है। मोदी जी ने कहा कि यहां से तालीम लेकर निकले तमाम लोग दुनिया के सैंकड़ों देशों में छाए हुए हैं। विदेश यात्रा में अक्सर ही मिलते हैं। कोरोना संक्रमण के समय एएमयू ने जो मदद की है, वह अमूल्य है।
अब पुराने विवादों को भूलने का वक्त
अब यह चर्चा का विषय नहीं होना चाहिए कि मोहम्मद अली जिन्ना की एएमयू में अब भी फोटो क्यों लगी है? इस मसले पर बहुत ही अनावश्यक बवाल हो चुका है। इस बात का भी कोई मतलब ही नहीं है पाकिस्तान के निर्माण में एमएमयू के छात्रों का अहम रोल रहा था। अब पुरानी बातों को भूलकर आगे बढ़ने का वक्त है। एएमयू में एक मिनी भारत नजर आया है। यहां एक ओर उर्दू तो दूसरी ओर हिंदी भी पढ़ाई जाती है। फारसी है तो संस्कृत भी है। कुरान के साथ गीता भी पढ़ाई जाती है। यही इस महान देश की शाश्वत शक्ति भी है। इसे हम कमजोर नहीं होने देंगे।
निश्चित रूप से सर सैयद अहमद खान ने एएमयू की नींव रखकर सौ बरस पहले देश और खासकर मुसलमानों के ऊपर एक बड़ा उपकार किया। पर यह भी सोचने वाली बात है कि मुसलमानों को फिर सर सैयद जैसी शख्सियतें क्यों नहीं मिली। एक यह बात भी गौरतलब है कि सर सैयद अहमद के अलावा किसी ने अपने कौम की शिक्षा के महत्व को क्यों नहीं समझा ? इन सवालों के गहराई से जवाब तलाशने होंगे ताकि देश के मुसलमान भी कठमुल्लों के चक्कर से मुक्त होकर एक जिम्मेदार नागरिक की तरह राष्ट्र निर्माण में और ठोस भूमिका निभा सकें।
यह याद रखा जाना चाहिए कि एएमयू को खड़ा करने में बहुत सी महत्वपूर्ण हस्तियों का भी उल्लेखनीय योगदान रहा था। उनमें बिहार के दरभंगा महाराज रामेश्वर सिंह जी भी थे। उन्होंने अलीगढ़ के मोहम्मडन एंग्लो ओरियेंटल कॉलेज के लिए योगदान किया था और वहाँ उन्होंने एक व्याख्यान भी दिया था, जिसके बारे में कम ही लोगों को पता होगा। एएमयू के प्रोफ़ेसर पंकज पराशर बताते हैं कि दरभंगा के महाराज रामेश्वर सिंह जब 9 जून, 1912 को ‘एंग्लो मोहम्मडन ओरियेंटल कॉलेज’ (अब के अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय) आए थे, तो इस विश्वविद्यालय के ‘स्ट्रैची हॉल’ में उन्होंने अंग्रेजी में उपस्थित जनसमूह के बीच एक प्रभावी भाषण दिया था और उसी अवसर पर उन्होंने ‘एंग्लो मोहम्मडन ओरियेंटल कॉलेज’ को बीस हजार रूपये दान दिया था। तब हिंदुस्तान में 18 रूपये, 93 पैसे में एक तोला सोना मिलता था। इस हिसाब से उन्होंने करीब 1053 तोले सोने की कीमत के बराबर रूपये अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को दान दिया था। 1053 ग्राम सोने की क़ीमत आज तकरीबन 52,650,300 (पाँच करोड़, छब्बीस लाख, पचास हजार, तीन सौ रूपये) है। दरभंगा महाराज रामेश्वर सिंह द्वारा दिया गया यह दान अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को किसी ग़ैर मुस्लिम द्वारा दिये गये दानों में सबसे बड़ा और सर्वोच्च स्थान रखता है। दरभंगा महाराज के इतने बड़े योगदान के बाद अभी तक एएमयू में उनके नाम पर कोई हॉल या लाइब्रेरी तक का नाम नहीं रखा गया है। एएमयू प्रशासन को इस तरफ भी अविलंब विचार करना होगा। पंडित मदन मोहन मालवीय और अलीगढ के राजपूत रजा का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा था जिसे कालांतर में भुला देने की कोशिश की गई I
सारे देश के नौजवान आएं
अभी एएमयू के साथ एक गड़बड़ यह भी हो रही है कि यहां पर मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश तथा बिहार के ही नौजवान आते हैं। किसी केन्द्रीय विश्वविद्लाय के लिए यह सुखद स्थिति नहीं मानी जा सकती। एएमयू प्रशासन को कोशिश करनी चाहिए कि इसमें सारे देश के नौजवानों को दाखिला मिले।
ए.एम.यू. के शताब्दी समारोह के अवसर पर अपने संबोधन में नरेंद्र मोदी जी ने सही कहा कि समाज में वैचारिक मतभेद होते हैं, लेकिन जब बात राष्ट्र के लक्ष्य के प्राप्ति की हो तो सभी मतभेद को किनारे रख देने चाहिए। देश में कोई किसी भी जाति या मजहब का हो, उसे हर हाल में और किसी भी कीमत पर अपने देश को आत्मनिर्भर बनाने की ओर योगदान देना ही चाहिए।
बेशक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह सच पुनः दुहराया कि जो देश में जन्मा है वह हर देशवासी इस देश का उतना ही बराबर का जिम्मेदार है। मतलब यह कि इस देश के संसाधनों पर मुसलमानों का भी पूरा हक है। इससे साफ बात कोई भी प्रधानमंत्री क्या करेगा ? हालांकि कई मुसलमान नेता अपनी कौम को गुमराह करने का कोई भी अवसर नहीं छोडते है।
खांटी दिल्ली वाले थे सर सैयद
एएमयू बिरादरी को राजधानी के दरियागंज इलाके में सर सैयद अहमद के जन्म स्थान के बाहर कम से कम एक पत्थर तो अवश्य लगवा देना चाहिए। हालत यह है कि अब किसी अनजान शख्स के लिए सर सैयद अहमद के पुशतैनी घर को खोजना भी लगभग असंभव है। बमुश्किल ही कोई मिल पाता है, जिसे मालूम होता है उनका घर। यह लगभग एक हजार गज में है। इसमें ही सर सैयद अहमद का 17 अक्तूबर 1817 को जन्म हुआ था। उनके परिवार की दिल्ली में खासी प्रतिष्ठा थी। इसी में उनके बचपन के शुरूआती साल बीते। अब उनके घर के अवशेष भी नहीं बचे हैं। लंबे समय तक लगभग उजाड़ रहा यह घर। इधर गायें-भैंसें बंधी रहती थीं। बीते कुछ समय के दौरान सर सैयद अहमद के घर को जमींदोज करके बन गए हैं सुंदर फ्लैट। सर सैयद अहमद खान खांटी दिल्ली वाले थे। उन्होंने दिल्ली के महत्वपूर्ण स्मारकों पर ‘असरारुस्नादीद’ ( इतिहास के अवशेष) नाम से महत्वपूर्ण किताब भी लिखी। ‘असरारुस्नादीद’ दो खंडों में छपी थी। इसका प्रकाशन 1842 में हुआ था। इसमें दिल्ली की 232 ऐतिहासिक इमारतों पर विस्तार से लिखा गया है। असरारुस्नादीद में जिन स्मारकों का जिक्र किया है, उनमें से कइयों को गोरों ने सन 1857 की क्रांति के बाद नेस्तनाबूत कर दिया था। फिर सन 1912 में दिल्ली के राजधानी बनने के बाद भी कई स्मारक तोड़ दिए गए।
बहरहाल, देश यह उम्मीद करेगा कि एएमयू भारत को एक से बढ़कर एक वैज्ञानिक, डाक्टर, खिलाड़ी, कवि, लेखक आदि भी देती रहेगी।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं)