विश्व का प्रथम श्लोक ,जिसने डाकू रत्नाकर को आदिकवि वाल्मीकि बनाया !

एक दिन ब्रह्ममूहूर्त में वाल्मीकि ऋषि स्नान, नित्य कर्मादि के लिए गंगा नदी को जा रहे थे। वाल्मीकि ऋषि के वस्त्र साथ में चल रहे उनके शिष्य भारद्वाज मुनि लिए हुए थे। मार्ग में उन्हें तमसा नामक नदी मिलती है।


वाल्मीकि ने देखा कि इस धारा का जल शुद्ध और निर्मल था। वो भारद्वाज मुनि से बोले – इस नदी का जल इतना स्वच्छ है जैसे कि किसी निष्पाप मनुष्य का मन। आज मैं यही स्नान करूँगा।


जब ऋषि धारा में प्रवेश करने के लिए उपयुक्त स्थान ढूंढ रहे रहे थे तो उन्होंने प्रणय-क्रिया में लीन क्रौंच पक्षी के जोड़े को देखा। प्रसन्न पक्षी युगल को देखकर वाल्मीकि ऋषि को भी हर्ष हुआ।


तभी अचानक कहीं से एक बाण आकर नर पक्षी को लग जाता है। नर पक्षी चीत्कार करते, तड़पते हुए वृक्ष से गिर जाता है। मादा पक्षी इस शोक से व्याकुल होकर विलाप करने लगती है।


ऋषि वाल्मीकि यह दृश्य देखकर हतप्रभ रह जाते हैं। तभी उस स्थान पर वह बहेलिया दौड़ते हुए आता है, जिसने पक्षी पर बाण चलाया था।


 



 


इस दुखद घटना से क्षुब्ध होकर वाल्मीकि ऋषि के मुख से अनायास ही बहेलिये के लिए एक श्राप निकल जाता है। संस्कृत भाषा में बोला गया यह श्राप इस प्रकार है :-


मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।


यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम् ॥


अर्थ: हे निषाद (शिकारी)! तुम्हे अनंत काल तक प्रतिष्ठा (शांति) न मिले, क्योकि तुमने प्रेम, प्रणय-क्रिया में लीन असावधान क्रौंच (सारस) पक्षी के जोड़े में से एक की हत्या कर दी।


यही वह श्लोक है जिसने वाल्मीकि की आद्य कवि बनने को प्रेरित किया।


 


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