शान की सवारी डोली बन गयी अतीत का हिस्सा
जौनपुर
तीन दशक पहले तक शान की सवारी समझी जाने वाली पालकी विकास के युग में अतीत का हिस्सा बन गई है । राजा महाराजाओं और जमीदारों के यहां पालकी सवारी का काम करती और उसे उठाकर ले जाने के लिए मजदूर होते थे । आजादी के बाद जमीदारी प्रथा टूट गई और फिर डोली व पालकी का चलन शादी विवाह में दुल्हा और दुल्हन ले जाने का काम शुरू हो गया । यह सिलसिला 80 की दशक तक चलता रहा । इसके बाद डोली भारतीय संस्कृति का अतीत बन गया।
नई पीढ़ियां जहां इस सवारी से अनभिज्ञ वही कुछ लोगों के जेहन में पालकी की याद रह गई है । खेतासराय क्षेत्र के 70 वर्शीय मनीषा गांव निवासी रामजीत बनवासी बताते हैं कि डोली पालकी हल्की लकड़ी की बना करती थी जिसमें दूल्हा दुल्हन के बैठने का इंतजाम होता था । डोली को उठाने के लिए 4 या से आठ आदमियों की जरूरत थी । सबसे खास बात यह थी कि 2 फीट की दूरी में दो लोग डोली उठाकर चला करते थे लेकिन किसी का पैर किसी से स्पर्श नहीं हुआ करता था ।
दूर दराज के जिलों में विवाह के मौके पर दूल्हे को लेकर जाया करते थे और फिर वहां से दुल्हन की विदाई कराकर दूल्हा और दुल्हन को साथ लाते थे । हम लोग 50 मील से ज्यादा तक की दूरी तक डोली ले जाती थी। रास्ते में अपनी जरूरत के मुताबिक पानी दाना कर लिया करते थे । मजदूरी के तौर पर हमें खाने के लिए राशन और पैसे मिल जाया करते थे जो उन्होंने बताया कि डोली दूल्हा को मिला कर 2 कुंन्तल के आसपास रहती थी ।
दूल्हा और दुल्हन सुरक्षा घेरे में रहते थे खतरा होने पर दुल्हन से जेवर लेकर मजदूर अपने कमर में बांध लेते थे । पालकी की बनावट और सजावट में फर्क होता था पालकी में दोनों तरफ खिड़कियां थी डोर स्लाइडिंग के होते थे जिसमें तकिया के अलावा बैठने का लगा रहता था डोली के मुकाबले पालकी सजी रहती थी कहीं कुआं वगैरह मिलने पर पानी पीकर थोड़ा आराम करते और फिर अपने सफर पर निकल जाया करते थे। दुल्हन को अपने घर की इज्जत मानकर हमेशा अपने प्राण न्योछावर करने के लिए तैयार रह रहा करते थे और प्रतिज्ञा लेते हुए उनके घर तक सुरक्षित पहुंचाते थे । कुछ लोगों के पास अपनी डोली होती थी जिसका भाड़ा लेते थे कुछ जमीदारों के पास कुछ उनके पास भी डोली होती थी कुछ लोग पुण्य समझ कर के डोली दे दिया करते थे तो कुछ लोग भाड़ा लिया करते थे ।