शारदीय नवरात्रि में ही राम ने शक्ति की पूजा लंका विजय की कामना से की थी !

 सनातन परंपरा में जहां मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में माने जाते हैं ,आर्यवर्त में 12 प्रमुख अवतार माने गए है।उनमें श्री राम का अवतार अत्याचार,अनाचार और स्वेच्छाचार को शमन करने को लिया थाराम ने जहाँ असँख्य मर्यादाएं स्थतापित की वही उन्होंने पुरुष और प्रकृति कर समन्वय के भी स्वीकारा!राम चाहते तो स्वत:रावण को सुर धाम भेज सकते थे ,पर उन्होंने शिला थाप कर रामेश्वरम में प्राण प्रतिष्ठा की,उन्होंने अंतिम शत्रु को एक बार समझसने हेतु अंगद को भेजा, अगस्त ऋषि के आग्रह पर आदित्य हृदय स्त्रोत्र का पाठ किया जो कलियुग के प्रत्यक्ष देवता हैं।


मर्यादाएं स्थापित करते करते राम को विराम तक लेना पड़ा पर उन्होंने मर्यादा कभी भी नही त्यागी,अन्तमे समुद्र से रास्ता ओर फिट आदिशक्ति की आराधना कर उन्होंने आद्या पराम्बा का आह्वान तक किया।रावण को चाहते अनायशने परास्त कर विभीषण का राज तिलक कर सकते थे पर उन्होंने लोकाराधन में मर्यादा का शमन कभी भी नही किया।


शारदीय नवरात्रि में ही राम ने शक्ति आराधना कर कर कहा


"देहि आरोग्य सौभाग्यम देहि में परमम श्रियं


रूपम देहि जयम देहि यशो देहि यशो जही।


भारतीय समाज में श्री राम, श्रीकृष्ण और शिव का स्मरण केIये विना कुछ 


भी सम्भव नही।इस लिए आज संकल्प लेना है कि रामकी मर्यादा, कृष्ण की नीति और शंकर का मस्तिष्क जरूरी है।


 


हिंदू धर्म की विशेषता है कि हमारे ईश केवल पूजनीय नहीं होते हैं, वे हमसे बड़े ही आत्मीय स्तर पर जुड़े होते हैं। किसी के लिए ईश्वर पुत्र, किसी के लिए माता-पिता, किसी के लिए मित्र, किसी के लिए पति, किसी के लिए प्रियतम, किसी के आराध्य तो किसी के परामर्शदाता और सुखकर्ता-दुखहर्ता भी होते हैं।


 


वास्तविकता यह है कि ईश्वर का रूप इतना विराट और उनकी लीला इतनी असीमित होती है कि सामान्य मनुष्य उसे स्वयं में समाहित नहीं कर पाता। ऐसे में मनुष्य अपने अनुसार उनकी एक छवि निर्मित कर लेता है जो उसके लिए सबसे आनंदमय और संतोषजनक हो। शायद इसलिए कहा जाता है कि सबके अपने भगवान होते हैं और ‘अपने-अपने राम’ कथन भारत में प्रचलित भी है।


 


राम का व्यक्तित्व ऐसा है जिसे समझना हर किसी के बस की बात नहीं है। बिना रामायण के किसी भी संस्करण को पढ़े और राम के व्यक्तित्व पर चिंतन किए बिना कई कथित बुद्धिजीवी, विशेषकर फेमिनिस्ट (नारीवादी) प्रायः राम पर सीता का त्याग करने के लिए निशाना साधते रहते हैं और क्षमायाचक (अपॉलोजेटिक) हिंदू उनका अनुसरण करते हैं।


 


यह एक सामान्य समझ की बात है कि पूरी रामायण में स्त्री का सम्मान करने वाले सुशील राम सीता को लज्जा कारक या संदेहास्पद मानकर तो उनका त्याग नहीं करेंगे। सीता से विरह और उनसे पुनः मिलने तक कोई राम के मनोभावों को समझे तो शायद ही कभी यह प्रश्न उठे।


 


‘राम की शक्ति पूजा’ नामक सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की कविता में राम के कुछ ऐसे ही मनोभाव देखने को मिलते हैं जो शायद रामायण में भी उल्लेखित नहीं हैं। साथ ही इसमें राम-रावण युद्ध को साधने के लिए राम द्वारा की गई शक्ति पूजा का भी उल्लेख है जिसका संदर्भ भले ही पुराणों में मिलता है लेकिन वाल्मीकि या तुलसी रामायण में नहीं।


 


बंग-भाषा के आदिकवि द्वारा रचित कृत्तिवास रामायण में शक्ति-पूजा को उल्लेख है जिसकी रचना तुलसी रामायण से भी 100 वर्ष पूर्व हुई थी। माना जाता है कि बंगाली संस्कृति में शक्ति पूजा के महत्त्व से प्रभावित रामायण के इस संस्करण में यह उल्लेख आया और बंगाल में जन्मे-पले हुए निराला भी इस प्रभाव से अछूते नहीं रहे।


 


इस कविता और रामचरितमानस में व्यक्त राम के मनोभावों में अथाह अंतर देखने को मिलता है। एक तरफ जहाँ रामचरितमानस में राम भले ही कुछ घटनाओं पर शोकग्रस्त और व्याकुल हुए लेकिन भयभीत कहीं नहीं। वहीं इस कविता में उनके टूटते मनोबल को दर्शाया गया है।


 


स्थिर राघवेंद्र को हिला रहा फिर-फिर संशय


रह-रह उठता जग जीवन में रावण-जय-भय


 


जैसे संघर्ष के मध्य उत्साह बढ़ाने के लिए एक मधुर स्वप्न पर्याप्त होता है, वैसे ही गिरते मनोबल के बीच राम के समक्ष सीता से प्रथम मिलन का दृश्य उभरकर आ जाता है जहाँ विदेह (मिथिला) के उस उपवन में उन दोनों के नयनों के बीच गुप्त संवाद हुआ था। यह उनके शरीर में एक नई ऊर्जा और हृदय में विश्व विजय का भाव भर देता है।


 


लेकिन थोड़ी ही देर में उन्हें पुनः युद्ध दृश्य स्मरण हो आता है जहाँ उनकी सेना की दुर्गति हुई है। रावण के अट्टहास की उनके कानों में गूंजती ध्वनि उनकी आँखों से अश्रु के रूप में फूट पड़ती है।


 


इन अश्रु मोतियों को देख राम-भक्त हनुमान विकल हो जाते हैं। सृष्टि पर उनकी व्याकुलता के प्रभाव का निराला के शब्दों में वर्णन प्रलय की अनुभूति कराता है। इसपर शिव चिंतित होकर देवी को सुझाते हैं कि वे बुद्धिमता से काम लें। रघुनंदन की आज्ञा और सेवाधर्म याद दिलाकर देवी हनुमान को शांत करती हैं।


 


दूसरी ओर विभीषण राम को उनके और उनकी सेना का बाहुबल याद दिलाकर उन्हें प्रोत्साहित करने का प्रयास करते हैं, लेकिन इससे भी राम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। उनकी चिंता का प्रमुख कारण था कि शक्ति रावण के पक्ष में हैं और ऐसे में युद्ध मात्र नर-वानर और राक्षसों का नहीं रहा था।


 


युद्ध की निराशा के अलावा शक्ति पूजा से पहले और अंत के समीप भी राम निराश दिखते हैं। जहाँ पहली निराशा मात्र घटनाओं से है, वहीं दूसरी निराशा स्वयं शक्ति और तीसरी निराशा स्वयं के जीवन से है।


 


शक्ति पूजा से पूर्व राम देवी के विधान से निराश हैं। उनकी निराशा इस बात से है कि अधर्मी होने के बावजूद वे रावण का साथ क्यों दे रही हैं। वे अपनी व्यथा बताते हुए कहते हैं कि शक्ति के प्रभाव के कारण उनकी सेना निष्फल हुई और स्वयं उनके हस्त भी शक्ति की एक दृष्टि के कारण बाण चलाते-चलाते रुक गए थे। शक्ति और रावण की इस संधि का निराला बड़ा सुंदर वर्णन करते हैं-


 


देखा हैं महाशक्ति रावण को लिये अंक,


लांछन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक


 


उनके अनुसार शक्ति एक चंद्र की भाँति हैं जो रावण रूपी दाग को स्वयं में लेने के बाद भी अपने तेज से वंचित नहीं होती हैं। इसपर जामवंत, जिन्हें निराला कविता में जाम्बवान कहते हैं, राम की इस निराशा को दूर करते हैं। उनके अनुसार जब रावण अशुद्ध होकर शक्ति को प्राप्त कर सकता है तो राम निश्चित ही शक्ति का वरदान अर्जित करने योग्य हैं।


 


हे पुरुषसिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण,


आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर


 


एक प्रकार से जामवंत राम को आराधन के बदले दृढ़ आराधन कर ईंट का जवाब पत्थर से देने को कहते हैं। और शक्ति के अर्जन तक अपनी सेनाबल का सामर्थ्य बताते हुए राम को युद्ध से दूर रहने को कहते हैं।


 


नौ दिनों की शक्ति पूजा की समाप्ति की ओर बढ़ते हुए जब राम अंतिम नीलकमल चढ़ाने के लिए हाथ आगे बढ़ाते हैं तब उनके हाथ कुछ नहीं लगता। इससे उनका ध्यान भंग हो जाता है और असिद्धि के विचार से इस कविता के घटनाक्रम में तीसरी बार निराशा उन्हें घेर लेती है।


 


निराशा एक मानवीय गुण है। घटनाओं से और अपने से अयोग्य व्यक्ति के साथ अच्छा होते हुए देखकर होने वाली निराशा सभी ने महसूस की होगी। लेकिन राम को जो तीसरी निराशा हुई, वह सिर्फ एक कर्मठ व्यक्ति को ही हो सकती है।


 


धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध,


धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध


 


उपरोक्त पंक्तियों में राम द्वारा जीवन भर झेले गए दुख और साधनों के लिए किए गए संघर्ष की निराशा छलक पड़ती है। अंत में फल मिले तो संघर्ष और दुख सब स्वीकार्य होते हैं लेकिन शक्ति के साधन में खुद को विफल मानने से राम के मन में पिछले विरोधों के कारण भी टीस उठी।


 


परंतु राम का एक मन था जो इतने संघर्षों के बाद भी नहीं थका था व और बलिदान करने के लिए तत्पर था। उन्हें याद आया कि उनकी माँ उन्हें “राजीवनयन” कहकर पुकारती थीं यानी कमल जैसे नयनों वाला। इसपर उन्होंने शक्ति के चरणों में अपनी आँख चढ़ाने का निर्णय कर लिया। जैसे ही उन्होंने तीर उठाया कि शक्ति प्रकट हुईं और जय का आशीष देकर उनके शरीर में लीन हो गईं।


 


कविता यहीं समाप्त हो जाती है लेकिन हम सब जानते हैं कि इसके बाद राम ने रावण पर विजय प्राप्त की। रामायण को अधिकांश लोग कुछ घटनाओं की शृंखला के रूप में देखते हैं लेकिन यदि हम इसके मनोभावों को समझने का प्रयास करेंगे तो यह अनुभूति भिन्न ही नहीं, दिव्य भी होगी।


निराला ने रामकी शक्ति की पूजा से यह सन्देश दिया है कि शक्ति उपेक्षा से राष्ट्र रुग्ण होजाता है।इसी लिए शक्तिरेव जयते का सनातन उद्घोष समी चीन है।


 


 


 


 


 


 


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