देश की संस्कृति और संस्कृत को विकृत करने का कुप्रयास बहुत पहले से होरहा है,उसी प्रयास की एक परिणति है महा काल का शापित योद्धा अश्वस्थामा !कुछ कथित विद्वानों का मत है कि द्रोणाचार्य पुत्र अश्वस्थामा को योगेश्वर श्री कृष्ण ने चिरंजीवी होने का वरदान दिया था,जो नतो किसी प्रकार से श्रेष्ठ है और नही समीचीन ही।यद्द्पि यदि अश्वस्थामा को प्रथमतः ही कौरवो ने अपना सेनापति बनादिया होता तो महाभारत का युद्ध 18 दिन न चलकर एकाध दिन में ही समाप्त होगया होता।उसकी वीरता व युद्धक ज्ञान पर किसी भी महाभारत कालीन परिस्थितियों के जानकार को नकारना कठिन है तथापि उसके द्वारा किया गया अविवेकी निर्णय ,उसके कुत्सित आचरण को प्रतिविम्बित करता है।मूल्यों परम्पराओ का जानकार जब कोई आन्यथा करता है तब उसका दन्ड औरों से अधिक माना जाता रहा है।
श्रीकृष्ण ने हमेशा महाभारत में राजधर्म को सर्बोपरि माना है और कहा है, जो
तटस्थ है समय लिखेगा उसका भी इतिहास!
महाभारत विश्व का सबसे प्रामाणिक ेेतीहसिक ग्रन्थ है,सबको सबके लिए श्रेष्टर क्या हो यह निरूपित करता है महाभारत!अश्वस्थामा को श्रीकृष्ण ने युग युगांतर तक भटकने का शापित योद्धा कहा है नकि उसे चिरंजीवी कहा।जो चिरंजीवियों की सूची है उनमें किसी बौद्धिक भृष्ट ने एक युगांतकारी शापित योद्धा को प्रथम स्थान देकर आर्य व सनातन संस्कृति को भृष्ट करने का कुनियोजित प्रयास किया है और उसका प्रयास सफल भी है,हम प्रातः ही शयन से उठते ही जिस श्लोक को स्मृति करते हैं वह,
अश्वस्थामा बलिव्यासो हनुमांश्च विभीषण:
कृप:परशुरामश्च सप्पटेत्त चिरंजीवीं:॥
अर्थात राजाबलि के दान'बलिदान' वेदव्यास के ज्ञान,विभीषण की राम भक्ति,कृपाचार्य ते सहजता तथा परशुरामजी के प्रताप से बड़ा अश्वस्थामा का कैसे होसकता है.यह बात आजतक साहित्यकारों,समाजशास्त्रियों ,इतिहास विदो व स्वयंभू विद्वानों द्वारा अश्वस्थामा को क्यो नकारा नही गया,यह विचारणीय प्रश्न है ।जब हम हिरण्यकश्यप व हिरण्याक्ष जैसे प्रतापी व्यवस्था को चुनोती देनेवाले योद्धा को नकारते है फिर अश्वत्थामा की औचित्यहीन प्रांसगिकता क्यो?
सोए की हत्या,गर्भस्थ् शिशु की हत्या जैसे जघन्यतम अपराधी चिरंजीवीं ? अवम्भव को सम्भव किसी कुबिचारी,वाममार्गी का होसकता है।परंतु प्रश्न यह उठता है कि आजतक क्यो अश्व की आज की प्रांसगिकता पर किसी ने कही से क्यो नही उठा।