राष्ट्रीय स्वयंसेवक सघ एक ऐसा अक्षय वट है जिसके छाव में असख्य मेधाओं ने जन्म लिया,सवारा, बढ़े व बड़े हुए ,सघ की नीति निरवैर,निर्भीक व निष्पक्ष हो आत्माहुति दी और जिस प्रयोजन से विधाता ने उन्हें धराधाम पर भेजा उसे पूराकर अनन्त में विलीन होगये.उसी असख्य नमो में एक नाम था राष्टर्षि भानुप्रताप शुक्ल जी का,जिन्होंने देश को कारा से मुक्त कराने में लेखनी को हथियार बनाया.उनका ध्येय संघ का विस्तार और उस विस्तार को वैचारिकी देना.
यद्द्पि भानुबाबू नाम सेसुविख्यात मेघा ने कभी आत्म प्रशंसा और आत्मप्रचार से अपने को दूर रखा पर भाऊराव देवरस,डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी,दीनदयाल उपाध्याय सम्पदकाचार्य अम्बिका प्रसाद वाजपेयी हो अपना वैचारिक अगुआ मैन निरन्तर अपनी कुशाग्र लेखनी से भारत,भारती की अप्रतिम सेवा में अपना सर्वस्व समर्पण करदिया.उन्होंने जन्म स्थान से थोड़ी दूर पर जन्मे आचार्य रा मचन्द्र शुक्ल की तरह साहित्य साधना में कभी पीछे नही देखा।उनका धेय वाक्य था
नतवह्म कामये राज्यं न स्वर्गम न पुनर्भवम।
कामये दुख तप्तानं प्राणिनांमर्ति नाशनम..।।
देश को जिस प्रकार शंकराचार्य जी ने वैदिक,लौकिक साहित्य सृजनकर अमूल्य धरोहर दी,खड़ी बोली के आदि पुरुष भारतेन्दु जी ने आज की हिंदी पर अल्पायु में जो उपकार किया वही उपकार भानू बाबू ने स्वतन्त्र भारत मे राष्ट्रवादी पत्रकारिता को नया आयाम दिया,यद्द्पि सावरकर,तिलक, लाला राजपत राय आदि ने स्वतन्त्रता की अलख जगाने में अपना सर्वस्व होम करदिया,तथापि स्वतन्त्रता के बाद राष्ट्रवादी पत्रकारिता को नव धार दिया भानू जी ने।पाञ्चजन्य के सम्पादक,जागरण में राष्ट्रचिन्तन कलम की लोग प्रतीक्षा रहती थी.उन्होंने अपने विषय के चहेतों का एक अलग वैचारिक व्याकुल पाठक वर्ग खड़ा करदिया था।जब देश इन्दिरा जी द्वारा अबाध अधिकार से वामपंथ शीर्ष संस्थाओं पर काबिज होचुका था तब संघ के एक साधारण प्रचारक ने हिंदी पत्रकारिता के माध्यम से वामराज को बेनकाब किया।आज केवल उनकी स्मृति शेष है पर राष्ट्रवादी पत्रकारिता का अप्रतिम शलकापुरुष पत्रकारिता के शंकराचार्य की उपाधि से अलंकृत होने योग्य है
राष्टर्षि भानू बाबू के बारे में संक्षिप्त जीवन संकलन
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक और वरिष्ठ पत्रकार श्री भानुप्रताप शुक्ल का जन्म सात अगस्त, 1935 को ग्राम राजपुर बैरिहवाँ, जिला बस्ती( उ.प्र.) में हुआ था। वे अपने पिता पण्डित अभयनारायण शुक्ल की एकमात्र सन्तान थे। उनके जन्म के 12 दिन बाद ही उनकी जन्मदात्री माँ का देहान्त हो गया। इस कारण उनका लालन-पालन अपने नाना पण्डित जगदम्बा प्रसाद तिवारी के घर सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ।
भानु जी की प्रारम्भिक शिक्षा गाँव की पाठशाला में पण्डित राम अभिलाष मिश्र के कठोर अनुशासन में पूरी हुई। 1951 में वे संघ के सम्पर्क में आये और 1955 में वे प्रचारक बन गये। भानु जी मेधावी छात्र थे। साहित्य के बीज उनके मन में सुप्तावस्था में पड़े थे। अतः उन्होंने छुटपुट कहानियाँ, लेख आदि लिखने प्रारम्भ कर दिये। यत्र-तत्र उनके प्रकाशन से उनका उत्साह बढ़ने लगा।
प्रचारक जीवन में वे कम ही स्थानों पर रहे। उन दिनों संघ की ओर से अनेक हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हो रहा था। इनका केन्द्र लखनऊ था। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन प्रान्त प्रचारक भाऊराव देवरस और सहप्रान्त प्रचारक दीनदयाल उपाध्याय इनकी देखरेख करते थे। इन दोनों ने भानु जी की लेखन प्रतिभा को पहचाना और उन्हें लखनऊ बुला लिया। यहाँ उनका सम्पर्क सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’,सुमित्रानन्दन पन्त, महादेवी वर्मा, भगवतीचरण वर्मा, अमृतलाल नागर एवं श्रीनारायण चतुर्वेदी जैसे साहित्यकारों से हुआ।
लखनऊ आकर भानु जी ने पण्डित अम्बिका प्रसाद वाजपेयी के सान्निध्य में पत्रकारिता के सूत्र सीखे। धीरे-धीरे उनका आत्मविश्वास बढ़ता गया और वे राष्ट्रधर्म (मासिक) और फिर तरुण भारत (दैनिक) के सम्पादक बनाये गये। 1975 में आपातकाल लगने पर पांचजन्य (साप्ताहिक) को लखनऊ से दिल्ली ले जाया गया। इसके साथ भानु जी भी दिल्ली आ गये और फिर अन्त तक दिल्ली ही उनकी गतिविधियों का केन्द्र रहा।
आपातकाल में भूमिगत रहकर उन्होंने इन्दिरा गान्धी की तानाशाही के विरुद्ध संघर्ष किया। आगे चलकर वे पांचजन्य के सम्पादक बने। इस नाते उनका परिचय देश-विदेश के पत्रकारों से हुआ। उन्होंने भारत से बाहर अनेक देशों की यात्राएँ भी कीं। 1990 के श्रीराम मन्दिर आन्दोलन में वे पूरी तरह सक्रिय रहे। 31 अक्तूबर और दो नवम्बर, 1990 को हुए हत्याकाण्ड के वे प्रत्यक्षदर्शी थे और इसकी जानकारी पांचजन्य के माध्यम से उन्होंने पूरे देश को दी।
1994 में पांचजन्य से अलग होकर वे स्वतन्त्र रूप से देश के अनेक पत्रों में लिखने लगे। ‘राष्ट्रचिन्तन’ नामक उनका साप्ताहिक स्तम्भ बहुत लोकप्रिय हुआ। उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखीं तथा अनेकों का सम्पादन किया। इनमें राष्ट्र जीवन की दिशा, सावरकर विचार दर्शन, अड़तीस कहानियाँ, आँखिन देखी कानन सुनी..आदि प्रमुख हैं। उन्होंने राष्ट्र,ईमानवाले जैसी अनेक वैचारिक पुस्तकों की लम्बी भूमिकाएँ भी लिखीं।
कलम के सिपाही भानु जी ने अपने शरीर की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। कैंसर जैसे गम्भीर रोग से पीड़ित होने पर भी उन्होंने लेखन का क्रम नहीं तोड़ा। 17 अगस्त, 2006 को दिल्ली के एक अस्पताल में उन्होंने अन्तिम साँस ली। उनके देहान्त से तीन दिन पहले तक उनका साप्ताहिक स्तम्भ ‘राष्ट्रचिन्तन’ देश के अनेक पत्रों में विधिवत प्रकाशित हुआ था।
भानुबाबू के बारे में मुझे केवल इतना कहना है,वे राष्ट्रवादी पत्रकारिता के ध्रुव है नमन उन्हें जिन्होंने जन्म दिया,नमन उन्हें जिन्होंने वरगद के एक बीज की पत्रकारिता के अक्षयवट का आकार दिया।आज उनकी पुण्यतिथि पर मै सादर नमन कर पतृपक्ष के अपनी करांजली अर्पित करता हूं।