जौनपुर। पुत्र की कुशलता दीर्घायु के लिए गुरूवार को महिलाओं ने जीवित्पुत्रिका का निर्जला व्रत रखा और सामुहिक रूप से शाम को विधि विधान के साथ पूजन किया। प्रत्येक साल अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को यह व्रत रखा जाता है। जीवित्पुत्रिका व्रत को जिउतिया व्रत के नाम से भी जानते हैं। जिस तरह से पति की कुशलता के लिए तीज का व्रत रखा जाता है, ठीक उसी तरह से पुत्र की कुशलता, आरोग्य और सुखमय के लिए माताएं निर्जला व्रत रखती हैं। बुधवार को दोपहर 1 बजकर 35 मिनट से आरंभ हो कर कि गुरुवार को दोपहर 3 बजकर 4 मिनट तक रहा । जीवित्पुत्रिका व्रत उदया तिथि में रखा जाता है। यह व्रत रखने वाली माताएं 11 सितंबर को सूर्योदय के बाद दोपहर 12 बजे तक पारण करेंगी। मान्यता है कि जीवित्पुत्रिका व्रत का पारण दोपहर 12 बजे तक कर लेना चाहिए। इस व्रत में सुबह स्नान करने के बाद व्रती प्रदोष काल में गाय के गोबर से पूजा स्थल को लीपकर साफ करती है इसके वहां एक छोटा सा तालाब बना लेती है। तालाब के पास एक पाकड़ की डाल लाकर खड़ाकर करने के शालिवाहन राजा के पुत्र धर्मात्मा जीमूतवाहन की कुशनिर्मित मूर्ति जल के पात्र में स्थापित किया जाता है। अब उन्हें दीप, धूप, अक्षत, रोली और लाल और पीली रूई से सजाकर भोग लगाया जाता है। मिट्टी या गोबर से मादा चील और मादा सियार की प्रतिमा बनाया जाता है। दोनों को लाल सिंदूर अर्पित किया जाता है।अब पुत्र की प्रगति और कुशलता की कामना किया जाता है। कहा जता है कि जीमूतवाहन एक गंधर्व राजकुमार थे, जो बेहद उदार और परोपकारी इंसान थे। उनके पिता ने राजपाट छोड़ दिया और वन में चले गए, जिसके बाद जीमूतवाहन को राजा बना दिया गया। वे राजकाज ठीक से चला रहे थे लेकिन उनका मन उसमें नहीं लगता था। एक दिन वे राजपाट भाइयों को सौंपकर अपने पिता के पास ही वन में चल दिए। वहां उनका विवाह मलयवती नामक कन्या से हुआ। एक रोज वन में वे एक वृद्धा से मिले। उसका संबंध नागवंश था। वह काफी डरी और सहमी थी। रो रही थी। जीमूतवाहन की नजर उस पर पड़ी, तो उनसे रहा नहीं गया और उससे रोने का कारण पूछा। उसने बताया कि पक्षीराज गरुड़ को नागों ने वचन दिया है कि हर रोज एक नाग उनके पास आहार स्वरुप जाएगा और उससे वे अपनी भूख शांत कर लिया करेंगे। उस वृद्धा ने कहा कि आज उसके बेटे की बारी है। उसका नाम शंखचूड़ है, चह आज पक्षीराज गरुड़ का निवाला बन जाएगा। यह कहकर वृद्धा रोने लगी। इस पर दयावान जीमूतवाहन ने कहा कि आपके बेटे को कुछ नहीं होगा। वह आज पक्षीराज गरुड़ के पास नहीं जाएगा। उसके बदले वे जाएंगे। ऐसा कहकर जीमूतवाहन तय समय पर स्वयं गरुड़ देव के पास पहुंच गए।जीमूतवाहन लाल कपड़े में लिपटे थे। गरुड़ देव ने उनको पंजे में दबोच लिया और उड़ गए। इस बीच उन्होंने देखा कि जीमूतवाहन रो रहे हैं और कराह रहे हैं। तब वे एक पहाड़ के शिखर पर रुक गए और जीमूतवाहन को मुक्त किया। तब उन्होंने सारी घटना बताई। गरुड़ देव जीमूतवाहन की दया और साहस की भावना से काफी प्रसन्न हुए। उन्होंने जीमूतवाहन को जीवन दान दे दिया। साथ ही उन्होंने वचन दिया कि आज से वे कभी भी किसी नाग को अपना ग्रास नहीं बनाएंगे। इस प्रकार से जीमूतवाहन के कारण नागों के वंश की रक्षा हुई। इसके बाद से ही आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को जीमूतवाहन की पूजा की जाती है और जीवित्पुत्रिका का निर्जला व्रत रखा जाता है।