पहली जंगे आजादी पर गालिब की चुप्पी की वजह
आर.के.सिन्हा
मिर्जा मोहम्मद असादुल्लाह बेग खान यानी चाचा गालिब बेशक सदियों के शायर थे। इस मसले पर कोई विवाद नहीं हो सकता है। उन्होंने एक से बढ़कर एक शेर कहे। पर हैरानी होती है कि वे तब लगभग मौन थे जब उनकी अपनी दिल्ली में पहली जंगे आजादी की लड़ाई लड़ी जा रही था। दिल्ली पर 11 मई 1857 को मेरठ से आए बंगाल आर्मी के बागियों ने हमला कर दिया था। वे दिल्ली में ईस्ट इंडिया कंपनी के गोरे अफसरों और उनकी खिदमत करने वाले भारतीयों को मारते हैं। दिल्ली में अफरा-तफरी मच गई। बागियों ने बच्चों, बूढ़ों, जवानों औरतों, जो भी अंग्रेज़ सामने आया उसे मारा। नाम निहाद मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फर की सुरक्षा में तैनात कप्तान डगलस और ईस्ट इंडिया कम्पनी के एजेंट साइमन फ्रेज़र को भी बेरहमी से मार दिया गया। बागियों ने बहादुर शाह ज़फर को हिन्दुस्तान का बादशाह घोषित कर दिया और इसके साथ ही दिल्ली उनके कब्जे में थी। गालिब खुद बहादुरशाह जफर के पास काम करते थे। यानी गालिब ने1857 में भारतीय स्वतंत्रता का पहला युद्ध ने अपनी आँखों के सामने से देखा था। पर वे कौन से कारण थे जिनकी वजह से वे कमोबेश कलम चलाने से बचते रहे। कहते हैं कि गालिब के भाई मिर्जा यूसुफ वर्षों से विक्षिप्त थे और अंग्रेजों ने कत्लेआम के दौरान उन्हें गोली मार दी पर गालिब ने यह जानकारी जाहिर नहीं की। उन्होंने लिखा कि उनके भाई की सामान्य मृत्यु हुई है। क्या वे कत्लेआम को देखकर अंदर से बहुत डरे हुए थे ? वे इनाम, वजीफे, पेंशन और उपाधियों के लिए अंग्रेजों के पीछे भागते रहे। यही वजह रही उन्होंने कभी अंग्रेज़ों के बारे में गलत नहीं लिखा ताकि उन्हें अंग्रेज़ों से पेंशन जैसे फायदे मिल सके। लेकिन इसके बावजूद लाल किले से बहादुर शाह ज़फर केउस्ताद के रूप में वो जुड़े रहे।
‘हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पर दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले’ जैसे लाजवाब शेर कहने वाले गालिब ने अपनी शायरी में वे सारे दुख, तकलीफ और त्रासदियों का जिक्र किया जिससे वे महान शायर बनते।कुलमिलाकर लगता है कि गालिब भी एक आम आदमी थे, उनमें एक आम आदमी की कई कमजोरियाँ भी थीं।ग़ालिब ने अपने जीवन में कई दुःख देखे उन्हें सात बच्चे थे लेकिन सातों की मृत्यु हो गई थी। ग़ालिब अपने ग़मों में भी मुस्कुराना जानते थे अपने ग़मों को उन्होंने कलम के माध्यम से लोगों तक पहुँचाया।