इतिहास की सबसे बड़ी आपदा में भूख का भय सबसे बड़ा व असरकारी भय है। से निपटने में दुनिया को आगे आना होगा।भूखे पेट से नतो देशभक्ति होसकती है और नही कोई काम।सबको भोजन,सबको पानी स्वास्थ की न्यूनतम आवश्यक्तानुशार पूर्ति तो सरकार ही करेगी।
सरकारने कोरोनाको प्राकृतिक आपदा घोषित करते हुए देशकी कम्पनियोंको विकल्प दिया है कि वह कारपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व यानी सीएसआरका धन कोरोना वायरससे प्रभावित लोगों और गरीबोंके कल्याणपर खर्च कर सकती हैं। दरअसल सरकारकी इस अच्छी पहलके साथ यह भी दिखाई दे रहा है कि जिस तरह अमेरिका और यूरोपीय देशोंमें अमीर वर्ग और विभिन्न क्षेत्रोंकी सेलेब्रिटीजने जिस तरह लाखों करोड़ों रुपयेका दान कोरोना पीडि़तोंको राहत देनेके लिए दिया है उसी तरह भारतके अमीर वर्ग और विभिन्न क्षेत्रोंमें चमकते हुए दिखाई दे रही सेलेब्रिटीजको भी भामाशाह बनकर आगे आना होगा। स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि लाकडाउनसे देशके असंघटित क्षेत्रके श्रमिकों और गरीबोंकी मुश्किलें सबसे ज्यादा बढ़ी हैं। देशके करीब ४५ करोड़के वर्क फोर्समेंसे ९० फीसदी लोग असंघटित क्षेत्रसे हैं। असंघटित क्षेत्रके लोगोंको काम और वेतनकी पूरी सुरक्षा नहीं होती है। इतना ही नहीं, इन्हें अन्य सामाजिक सुरक्षा भी नहीं मिलती है। देशमें करीब २१ प्रतिशत लोग गरीबी रेखाके नीचे हैं। देशमें करीब डेढ़ करोड़से अधिक लोग प्रवासी मजदूर हैं। यह मजदूर इस समय बड़ी संख्यामें शहरोंसे अपने-अपने गांवकी ओर पलायन कर चुके हैं। वास्तवमें यह वह लोग हैं, जो गरीबी, भूख और कुपोषणसे संबंधित समस्याओंका लंबे समयसे सामना करते आ रहे हैं। ऐसेमें कोरोना प्रकोपके बाद इनकी मुश्किलें और बढ़ गयी हैं।
यदि हम हालमें प्रकाशित वैश्विक खुशहाली, वैश्विक स्वास्थ्य, वैश्वक भूख और वैश्विक कुपोषणकी रिपोर्टको देखें तो भारतके संबंधमें चिंताजनक तस्वीर उभरकर दिखाई देती है। २० मार्चको संयुक्त राष्ट्र द्वारा १५६ देशोंकी हैप्पीनेस इंडेक्सकी रिपोर्ट जारी की। इस रिपोर्टमें भारत पिछले वर्षकी तुलनामें चार पायदान फिसलकर १४४वें स्थानपर पहुंच गया। रिपोर्टके मुताबिक इन १५६ देशोंकी खुशहाली मापनेके लिए जिन मानकोंके आधारपर रैंकिंग की गयी, उनमें संबंधित देशके प्रति व्यक्तिकी जीडीपी, सामाजिक सहयोग, उदारता और भ्रष्टाचार, सामाजिक स्वतंत्रता, स्वस्थ जीवनकी स्थिति शामिल है। गौरतलब है कि वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा सूचकांकमें १९५ देशोंमें भारतको ५७वां स्थान दिया गया है। इसी तरह भारतमें भूखकी समस्यासे संबंधित रिपोर्ट वैश्विक भूख सूचकांक ग्लोबल हंगर इंडेक्स २०१९ में ११७ देशोंकी सूचीमें भारतकी रैंकिंग सात स्थान फिसलकर १०२वें स्थानपर रही है, जबकि वर्ष २०१० में भारत ९५वें स्थानपर था।
इतिहास की सबसे बड़ी प्राकृतिक आपदाके रूपमें कोरोना संकट भारतके सामने खड़ा हो गया है। इससे निबटनेके लिए अभूतपूर्व उपायोंकी जरूरत है। ऐसे विभिन्न उपायोंमें सीएसआर खर्च भी एक तात्कालिक और सार्थक भूमिका निभा सकता है। ऐसेमें इस समय कारपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्वके परिपालनके तहत स्वास्थ्य, कुपोषण और भूखकी चिंताएं कम करनेके लिए सीएसआर व्यय बढ़ानेके लिए प्राथमिकता दी जानी जरूरी है। उल्लेखनीय है कि ५०० करोड़ रुपये या इससे ज्यादा नेटवर्थ या पांच करोड़ रुपये या इससे ज्यादा मुनाफेवाली कम्पनियोंको पिछले तीन सालके अपने औसत मुनाफेका दो प्रतिशत हिस्सा हर साल सीएसआरके तहत उन निर्धारित गतिविधियोंमें खर्च करना होता है, जो समाजके पिछड़े या वंचित लोगोंके कल्याणके लिए जरूरी हों। इनमें प्राकृतिक आपदा, भूख, गरीबी और कुपोषणपर नियंत्रण, कौशल प्रशिक्षण, शिक्षाको बढ़ावा, पर्यावरण संरक्षण, खेलकूद प्रोत्साहन, मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य, तंग बस्तियोंके विकास आदिपर खर्च करना होता है। विभिन्न अध्ययन रिपोर्टोंमें पाया गया कि बड़ी संख्यामें कम्पनियां सीएसआरके उद्देश्यके अनुरूप खर्च नहीं करती हैं। वह सीएसआरके नामपर मनमाने तरीकेसे खर्चे कर रही हैं।
विगत अगस्त २०१९ में सरकारने जिस कम्पनी संशोधन विधेयक २०१९ को पारित किया है उसके तहत उन कम्पनियोंपर जुर्माना लगानेके प्रावधान भी शामिल हैं, जो कारपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्वके लिए अनिवार्य दो फीसदीका खर्च नहीं करती हैं। नये संशोधनोंसे कम्पनियोंकी सीएसआर गतिविधियोंमें जवाबदेही तय करनेमें आसानी होगी। कम्पनी अधिनियम की धारा १३५ के नये सीएसआर मानकोंके मुताबिक यदि कोई कम्पनी अपने मुनाफेका निर्धारित हिस्सा निर्धारित सामाजिक गतिविधियोंपर खर्च नहीं कर पाये तो जो धनराशि खर्च नहीं हो सकी उसे कम्पनीसे संबद्ध बैंकमें सोशल रिस्पांसिबिलिटी अकाउंटमें जमा किया जाना होगा। कम्पनियोंको सीएसआरका बिना खर्च किया हुआ धन स्वच्छ भारत कोष, क्लीन गंगा फंड और प्रधान मंत्री राहत कोष जैसी मदोंमें डालना होगा। ऐसेमें अबतक जो कम्पनियां सीएसआरको रस्मअदायगी मानकर उसके नामपर कुछ भी कर देती थीं, उनके लिए अब मुश्किल हो सकती है। सीएसआरके मोर्चेपर सरकार सख्ती करने जा रही है। अब कम्पनियां केवल यह कहकर नहीं बच पायंगी कि उन्होंने सीएसआरपर पर्याप्त रकम खर्च की है। अब उन्हें बताना पड़ेगा कि खर्च किस काममें किया गया। उसका नतीजा क्या निकला और समाजपर उसका कोई सकारात्मक असर पड़ा या नहीं। यह बताना होगा कि क्या यह खर्च कम्पनीसे जुड़े किसी संघटनपर हो रहा है। अब सरकारके द्वारा कम्पनियोंके सीएसआरके बारेमें नये नियमोंको ध्यानमें रखना होगा। इन नियमोंके तहत सीएसआर खर्चके तहत निचले स्तरपर शामिल कम्पनियोंके लिए खुलासेकी न्यूनतम बाध्यता होगी, खर्चकी रकम बढऩेके साथ अधिकसे अधिक जानकारी देनी होगी। निश्चित रूपसे कोरोना वायरसके वर्तमान चुनौतीपूर्ण दौरमें कारपोरेट जगतका सामाजिक उत्तरदायित्व बढ़ गया है। देशमें कारपोरेट जगतके सामाजिक उत्तरदायित्वकी नयी जरूरतें उभरकर सामने आयी हैं।
ज्ञातव्य है कि सीएसआर किसी तरहका दान नहीं है। दरअसल यह सामाजिक जिम्मेदारियोंके साथ कारोबार करनेकी व्यवस्था है। कारपोरेट जगतकी जिम्मेदारी है कि वह स्थानीय समुदाय और समाजके विभिन्न वर्गोंके बेहतर जीवनके लिए सकारात्मक भूमिका निभाये। खास तौरसे देशमें स्वास्थ्य, कुपोषण एवं भूखकी चिंताओंको कम करनेके लिए सीएसआर व्यय बढ़ाया जाना देशकी प्रमुख आर्थिक-सामाजिक जरूरत है। उम्मीद है कि कोरोना महामारीसे आर्थिक-सामाजिक मुश्किलोंका सामना कर रहे देशके करोड़ों लोगोंको राहत देने एवं उनके जीवनकी चिंताओंको कम करने जैसे दायित्वोंके निर्वहनके लिए कारपोरेट क्षेत्र सीएसआर खर्चके माध्यमसे अधिक प्रभावी भूमिका निभानेके लिए आगे बढ़ेगा। भारतके विभिन्न क्षेत्रोंकी सेलेब्रिटीज देशके करोड़ों लोगोंके आर्थिक-सामाजिक मुश्किलोंको कुछ कम करनेमें अपनी सार्थक भूमिका निभाते हुए दिख रहे हैं। जिस प्रकार टाटा, महिंद्रा और जिंदल जैसे उद्योगपति कोरोनासे जंगके लिए सहयोगके हाथ बढ़ा रहे हैं उसी प्रकार उद्योग और कारोबार क्षेत्रके शिखर उद्यमियोंको भी आगे बढऩेकी जरूरत दिखाई दे रही है।
सरकार को तुरतंत अन्य उपायों केसाथ ही जनसहयोग व जनसख्या नियंत्रण कानून अनिवार्य रूप से बनाने ही होगे।