त्रासदीयां हमेशा हुई हैं..होती रहेंगी
ये क़ुदरत का अपना ढंग है खुद को स्थिर करने का..!
हर वो जीव जिसने क़ुदरत के साथ सामंजस्य नहीं किया ख़त्म हो गया....मिलजुल कर रहना जैसा कुछ हमने सीखा ही नहीं..हर तरफ बस जंगल का क़ानून..
ओर उस पर से पश्चिम का आधुनिकीकरण!
आख़िर हमे मिला ही क्या ऐसे आधुनिकीकरण से..
जहाँ हमने जीने के हर ढंग पर आधुनिकता बनाम दिखावे का चोला पहन लिया...आज का समूचा हाल इस आधुनिक रहन सहन ही की देन है..ये मौसम..ये ग्लोबल वार्मिंग..ओज़ोन संकट..ग्लेशियर पिघलना
कहीं अतिवृष्टि और कहीं अनावरिष्टि..कहीँ कोई महामारी कहीं कोई विध्वंसक बाढ़ कहीं पर सूखा तो कहीं भंयकर ज़लज़ला..
आज हम अपने ही बनाए बारूद के ढेर पर खड़े हैं..
आधुनिकता बनाम बेहतर रहन सहन के चलते फ़ैक्टरीयों में जिन जिन चीज़ों का उत्पादन हुआ..क्या उसके बिना जीवन नहीं चल सकता था..क्या वेदांत
( वही वेदांत जहाँ कर्म कांड, मूर्ति पूजा, सम्प्रदायवाद व जाति आधारित उच्चता नहीं थी)
(वही वेंदात जिनकी व्याख्या स्वामी विवेकानंद जी ने समस्त संसार के मंच पर कि थी)
वही वेंदात वाली हिंदू संस्कृती क्या कहीं भी कमतर थी हमारे सुरक्षित जीवन यापन के लिए.... हाँ थोड़ा सादा जीवन चलता किंतु लबें समय तक चलता..परन्तु अब क्या हुआ..साईंस ने तरक़्क़ी कि तो इस हद तक कर ली कि एक परमाणु बम से पूरी दुनिया कुछ पल ही में राख..कि जैविक हथियारों कि मार झेलती ये दुनिया कितने दिन की मेहमान है कहना मुशकिल है..
पश्चिमी देशों ने जब हर सभंव तरह से कार्बन का स्तर बढ़ा दिया ओर आज जब बर्फ़ पिघल रही है ओर लंदन भविष्य में डूबता नज़र आ रहा है
तो सबसे अधिक होश भी इनके ही उड़े हैं!
ख़ैर ये लोग तो होशियार निकले..उपनिवेशों के दम पर हर तरह से खुद को सशक्त बना लिया..आज काफ़ी हद तक विपदाओ को झेलने में हमसे अधिक सक्षम हैं..
पर हमारा ओर कुछ तीसरे विश्व के देशों का क्या?
किसी भी आपदा से हम कैसे निपटेंगे?
सच कहें तो फ़िलहाल हम बस दुआओं के भरोसे हैं..चूँकि मौजूदा हालात को देंखे तो सरकार भी जानती है कि कोरोना अगर फैल गया तो भारत में हालात नहीं सभंलने वाले..यहाँ अच्छा इलाज भी केवल अमीरों कि पहुँच में है..जहाँ हर साल केवल सही इलाज के अभाव में हजारों काल का ग्रास बनते हैं..वहाँ ये वायरस से लड़ने कि हिम्मत केवल प्राकृति ही दे पाएगी..
हमारी उपलब्धि है हमारे बच्चों को पहनाए हुए मास्क..
जो आज अगर कोरोना के कारण पहन रहें हैं..
तो कल अति दूषित पर्यावरण के कारण पहनेंगे..
सोचिए हमने अपनी आने वाली पुश्तो के लिए कैसी दुनिया छोड़ कर जा रहें हैं..शायद ऐसी दुनिया जहाँ आने वाले सौ साल में हर व्यक्ति को मास्क तो क्या ऑक्सीजन सिलेंडर लगाने पड़े..
सच तो ये है कि वक़्त आ चुका है कि इस आधुनिकता की दौड़ से हम अब बाहर निकल आएँ..
हम लौटे अपनी जड़ो कि तरफ..
अपनी ज़मीन से जुड़ी संस्कृती कि तरफ..
वक़्त है कि हम साथ में रहना सीखें..
राज करना नहीं
हम लौटे प्राकृति की तरफ..
ओर लौटें अपनी संस्कृती कि तरफ जहाँ सदैव क़ुदरत के नियमों के साथ सामंजस्य कर
चलना सिखाया गया