नागरिकता कानून और पूर्वात्तर::स्वधर्मे निधनम श्रेय:




 

 



 

 



 

 








 

 



 

 



 

 






 

 



 




 

 



 










 

 




 




 

 





 

 



 





 

 



 

 



 

नागरिकता कानून को लेकर देश अशांत है विशेष कर पूर्वोत्तर ,पर क्या किसी ने सोचा देश किधर जारहा है?पड़ोस हमारी सीमाओं को सिकोड़ने का प्रयास कर रहा है














वर्ष 1947 में भारत आजाद हुआ और उससे अलग होकर पाकिस्तान बना। भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बना, जहां बिना किसी धार्मिक भेदभाव के सभी नागरिकों के लिए मौलिक अधिकार सुनिश्चित किए गए, जबकि पाकिस्तान एक इस्लामी राष्ट्र बना। उसी दिन से यह स्पष्ट था कि दोनों राष्ट्रों में धार्मिक अल्पसंख्यक रहेंगे। 73 वर्ष बाद यह स्पष्ट है कि पाकिस्तान जैसे राष्ट्र में, जो आधिकारिक रूप से इस्लामी राष्ट्र है, हिंदू, सिख, ईसाई, बौद्ध जैसे अल्पसंख्यक डर और खतरे में रहते हैं और जातीय सफाये और उत्पीड़न के शिकार हैं। अक्सर उन्हें जिंदगी और मौत से जूझना पड़ता है। यह स्थिति तब है, जब 1950 में नेहरू-लियाकत ने अल्पसंख्यकों के संरक्षण के लिए कुख्यात समझौता किया था। इस समझौते की विफलता, जो विभाजन की ऐतिहासिक गड़बड़ी की कीमत पर हुआ था, का दंश लोग आज भी भुगत रहे हैं। इसके विपरीत भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति बेहतर हुई है और समय-समय पर होने वाले सांप्रदायिक दंगों के बावजूद उनका विकास हुआ है।

और इसलिए जातीय सफाई, जबरन धर्मांतरण और हिंसा के जानबूझकर चलाए गए अभियान के परिणामस्वरूप पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश जैसे देशों में अल्पसंख्यकों की संख्या काफी घट गई है। जातीय सफाई, उत्पीड़न और हिंसा के शिकार उन लोगों को उन देशों में कानून का संरक्षण भी नहीं मिलता है। उनमें से कई लोग एकमात्र सुरक्षित आश्रय मानकर भागकर भारत चले आए हैं, जिसे वे जानते हैं और जिस पर भरोसा करते हैं। वर्षों से वे भारत में शरणार्थी बने हुए हैं, जहां उनकी कोई कानूनी पहचान नहीं है और वे निराशा का जीवन जी रहे हैं।

नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएबी) इन शरणार्थियों का भविष्य सुरक्षित करते हुए उन्हें भारत का नागरिक बना सकता है। दुनिया में कोई देश नहीं है, जिसे ये शरणार्थी अपना घर कह सकते हैं। इसके अलावा, यह विधेयक उन तीन देशों में रहने वाले अल्पसंख्यकों के लिए उम्मीद की किरण बन सकता है, जो वहां उत्पीड़न का शिकार हैं और अगर वे चाहें, तो भारत आ सकते हैं। यह बहुत ही सरल प्रस्ताव है, जिसे आम तौर पर मानवीय आधार पर सभी राजनीतिक दलों का समर्थन प्राप्त होना चाहिए।

लेकिन अनुमानित रूप से कुछ राजनीतिक दलों की वोट बैंक की राजनीति ने इस प्रयास को भी बाधित करने की कोशिश की है। विशेष रूप से कांग्रेस इस विधेयक के मुस्लिम विरोधी और भेदभावपूर्ण होने का दुष्प्रचार कर रही है। ऐसा संभवतः वह खुद को मुस्लिम समर्थक बताने के अपने राजनीतिक झूठ के आधार पर कर रही है। कांग्रेस द्वारा जिन बिंदुओं का उल्लेख किया जा रहा है, वह यह है कि यह विधेयक मुस्लिम विरोधी, संविधान विरोधी और भेदभावपूर्ण है और अन्य देशों के शरणार्थियों को भी नागरिकता की अनुमति दी जानी चाहिए। अगर जरा-सा भी परीक्षण किया जाए, तो इन आरोपों का खोखलापन स्पष्ट हो जाएगा। इस विधेयक में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो किसी भारतीय नागरिक के मामूली अधिकारों को प्रभावित करता है, चाहे वह मुस्लिम हो या किसी अन्य धर्म का। इसमें कोई भेदभाव नहीं है, यह तीन इस्लामी राष्ट्रों के सभी धार्मिक अल्पसंख्यकों की बात करता है। और जहां तक सवाल यह है कि इसमें श्रीलंका, नेपाल, म्यांमार जैसे अन्य देशों के शरणार्थियों को क्यों शामिल नहीं किया गया, तो उसका जवाब यह है कि ये ऐसे देश नहीं हैं, जहां तीन इस्लामी राष्ट्रों की तरह धर्म के आधार पर निर्धारित राष्ट्रधर्म और कानून है। यह आरोप भी गलत है कि यह विधेयक हिंदूवादी है, क्योंकि श्रीलंका से आने वाले हजारों हिंदू शरणार्थी हैं, जो इस विधेयक से बाहर हैं।

इस पूरी बहस में राहुल गांधी और कांग्रेस की प्रतिक्रिया वैसी ही थी, जैसी सीमा पार पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान की थी। कांग्रेस के कुछ नेताओं ने तो यह विचित्र तर्क भी दिया कि रोहिंग्याओं को भी शरण दी जानी चाहिए, जबकि बांग्लादेश भी ऐसा नहीं करना चाहता। पिछले सात दशकों में सार्वजनिक वित्त, चुनावी जनसांख्यिकी और राष्ट्रीय सुरक्षा के संदर्भ में अवैध प्रवासन भारत के लिए एक बड़ी चुनौती बन गया है। कांग्रेस दशकों तक इस मुद्दे के साथ राजनीतिक फुटबॉल की तरह खेल खेलती रही है और वह इसे आगे भी जारी रखना चाहती है।

कांग्रेस के लिए शर्मनाक बात यह है कि इन शरणार्थियों को नागरिकता देने का उसका मौजूदा विरोध उसके अपने पहले के रुख के विपरीत है, क्योंकि वर्ष 1943 में वह गैर-मुस्लिम शरणार्थियों के लिए नागरिकता चाहती थी। वर्ष 2003 में डॉ. मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के धार्मिक शरणार्थियों के लिए इसी तरह की नागरिकता पर जोर डाला था। और इसलिए तुष्टीकरण और राजनीतिक स्मृतिलोप को संतुलित करने की कोशिश में कांग्रेस पार्टी का राजनीतिक पाखंड उजागर हो गया है।

स्पष्ट है कि यह विधेयक उन लोगों के लिए कानूनी प्रवासन की प्रक्रिया में बदलाव नहीं करता है, जो भारत आना चाहते हैं। यह विधेयक कानूनी प्रवासन को न तो प्रोत्साहित करता है और न ही हतोत्साहित करता है। नागरिकता चाहने वाले लोगों के लिए कानून वही है। जो लोग वैध नागरिकता चाहते हैं, वे मौजूदा नागरिकता अधिनियम के तहत निर्धारित नागरिक बनने की प्रक्रिया का उपयोग कर सकते हैं।

नरेंद्र मोदी सरकार विशेष रूप से अवैध प्रवासन पर रोक लगाना चाहती है, जो पूरी तरह से देश के बेहतर हित में है। भाजपा अपने विभिन्न घोषणापत्रों, विशेष रूप से 2019 के घोषणापत्र में अपने इस इरादे पर दृढ़ रही है। जो लोग धार्मिक उत्पीड़न का शिकार रहे हैं, उन्हें सुरक्षित आश्रय प्रदान करने का फैसला सही है। और इसलिए मोदी सरकार 70 साल की यथास्थिति को चुनौती दे रही है, उसे बदल रही है और दशकों से धार्मिक शरणार्थी के रूप में पीड़ित लोगों को मानवीय समर्थन दे रही है और आगे भी देती रहेगी। नरेंद्र मोदी सरकार की देश हित के प्रति स्पष्ट प्रतिबद्धता है, जैसी अतीत की किसी भी सरकार में नहीं थी और यह नए भारत की वास्तविकता है।






















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पर धर्मो भयावह:










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